भगवान श्री राघवेन्द्र ने एक बार लक्ष्मणजी से पूछा था -- तुमने मेरे साथ अयोध्या से चलकर सारे संसार की यात्रा की, उन सभी यात्राओं में तुम्हें किस यात्रा में सर्वाधिक आनन्द आया ? लक्ष्मणजी ने बताया कि उन्हें लंका की यात्रा में ही सबसे अधिक आनन्द मिला। भगवान बोले -- लंका का मार्ग तो बड़ा कंटकाकीर्ण था।
लक्ष्मणजी बोले -- उस समय नहीं था।-- तब ?
लक्ष्मणजी ने कहा -- प्रभो ! मेघनाथ के बाण चलाने पर जब मैं मूर्छित हो गया था, उस समय जो यात्रा हुई, उतनी बढ़िया यात्रा कभी नहीं हुई। प्रभु ने कहा -- तुम तो मूर्छित हो गए थे, फिर यात्रा कैसे हुई ? लक्ष्मणजी बोले -- यही तो आश्चर्य है ; चलकर तो व्यक्ति आप तक पहुँचने की चेष्टा करता है और पहुँचता भी है, परन्तु जब मैं मूर्छित हो गया था और हनुमानजी ने मुझे अपनी गोद में उठाकर आपकी गोद में दे दिया, तो मुझे तो एक पग भी नहीं चलना पड़ा और मैं सन्त की गोद के माध्यम से भगवन्त की गोद में पहुँच गया।
लक्ष्मणजी बोले -- उस समय नहीं था।-- तब ?
लक्ष्मणजी ने कहा -- प्रभो ! मेघनाथ के बाण चलाने पर जब मैं मूर्छित हो गया था, उस समय जो यात्रा हुई, उतनी बढ़िया यात्रा कभी नहीं हुई। प्रभु ने कहा -- तुम तो मूर्छित हो गए थे, फिर यात्रा कैसे हुई ? लक्ष्मणजी बोले -- यही तो आश्चर्य है ; चलकर तो व्यक्ति आप तक पहुँचने की चेष्टा करता है और पहुँचता भी है, परन्तु जब मैं मूर्छित हो गया था और हनुमानजी ने मुझे अपनी गोद में उठाकर आपकी गोद में दे दिया, तो मुझे तो एक पग भी नहीं चलना पड़ा और मैं सन्त की गोद के माध्यम से भगवन्त की गोद में पहुँच गया।