Friday, December 15, 2017

सेवा का मोल

 एक समय की बात है. एक गरीब आदमी था। वो हर रोज अपने गुरु के आश्रम जाकर वहां साफ-सफाई करता और फिर अपने काम पर चला जाता था। अक्सर वो अपने गुरु से कहता कि आप मुझे आशीर्वाद दीजिए तो मेरे पास ढेर सारा धन-दौलत आ जाए। एक दिन गुरु ने पूछ ही लिया कि क्या तुम आश्रम में इसीलिए काम करने आते हो। उसने पूरी ईमानदारी से कहा कि हां, मेरा उद्देश्य तो यही है कि मेरे पास ढेर सारा धन आ जाए, इसीलिए तो आपके दरशन करने आता हूं। पटरी पर सामान लगाकर बेचता हूं। पता नहीं, मेरे सुख के दिन कब आएंगे। गुरु ने कहा कि तुम चिंता मत करो। जब तुम्हारे सामने अवसर आएगा तब ऊपर वाला तुम्हें आवाज थोड़ी लगाएगा। बस, चुपचाप तुम्हारे सामने अवसर खोलता जाएगा। युवक चला गया। समय ने पलटा खाया, वो अधिक धन कमाने लगा। इतना व्यस्त हो गया कि आश्रम में जाना ही छूट गया।  कई वर्षों बाद वह एक दिन सुबह ही आश्रम पहुंचा और साफ-सफाई करने लगा। गुरु ने बड़े ही आश्चर्य से पूछा--क्या बात है, इतने बरसों बाद आए हो, सुना है बहुत बड़े सेठ बन गए हो। वो व्यक्ति बोला--बहुत धन कमाया। अच्छे घरों में बच्चों की शादियां की, पैसे की कोई कमी नहीं है पर दिल में चैन नहीं है। ऐसा लगता था रोज सेवा करने आता रहूं पर आ ना सका। गुरुजी, आपने मुझे सब कुछ दिया पर जिंदगी का चैन नहीं दिया। गुरु ने कहा कि तुमने वह मांगा ही कब था?  जो तुमने मांगा वो तो तुम्हें मिल गया ना।  फिर आज यहां क्या करने आए हो ? उसकी आंखों में आंसू भर आए, गुरु के चरणों में गिर पड़ा और बोला --अब कुछ मांगने के लिए सेवा नहीं करूंगा। बस दिल को शान्ति मिल जाए। गुरु ने कहा--पहले तय कर लो कि अब कुछ मागने के लिए आश्रम की सेवा नहीं करोगे, बस मन की शांति के लिए ही आओगे। गुरु ने समझाया कि चाहे मांगने से कुछ भी मिल जाए पर दिल का चैन कभी नहीं मिलता इसलिए सेवा के बदले कुछ मांगना नहीं है। वो व्यक्ति बड़ा ही उदास होकर  गुरु को देखता रहा और बोला--मुझे कुछ नहीं चाहिए। आप बस, मुझे सेवा करने दीजिए। सच में, मन की शांति सबसे अनमोल है।।

Thursday, December 14, 2017

स्वीकारता

 एक समय की बात है..एक दिन गुरु नानकदेव अकेले बैठे हुए थे। एक डाकू उनके पास आया और उनके चरणों में गिरकर कहने लगा- 'मैं डाकू हूँ, अपने जीवन से परेशान हूँ, अपने को सुधारना चाहता हूँ। इन पापों से, जो मैं रोज करता हूँ, मुक्ति चाहता हूँ। मुझे कोई उपाय बताइये। मेरा मार्गदर्शन कीजिये।' नानकदेव पहले तो उस डाकू के हाव-भाव देखते रहे, फिर बोले- 'तुम आज से डाका डालना और झूठ बोलना छोड दो, सब ठीक हो जायेगा।' डाकू उन्हें प्रणाम करके लौट गया। लेकिन कुछ दिन के बाद फिर आया और कहने लगा-'मैंने झूठ न बोलने और डाका न डालने की भरसक कोशिश की मगर इन आदतों को छोड़ नहीं पाता। लेकिन मैं सुधरना अवश्य चाहता हूँ। आप मुझे कोई उपाय बताइये।' और वह उनके चरणों में गिर पड़ा। गुरुजी पुन: सोच में पड़ गये फिर उनके होठों पर मुस्कान आयी। वे डाकू से बोले- 'अच्छा, जो तुम्हारे मन में आये करो लेकिन दिनभर झूठ बोलने, डाका डालने के बाद प्रतिदिन लोगों के सामने अपने इन सब कामों का बखान कर दो।' डाकू को यह उपाय बहुत आसान मालूम हुआ। वह प्रणाम करके चला गया। इस बार बहुत दिन बीत गये डाकू लौटकर नहीं आया। फिर एक दिन जब गुरुजी ध्यानमग्न थे, अचानक वह उनके सामने आ खड़ा हुआ। गुरुजी ने जब उसे पास खड़े देखा, तो पूछा-'बहुत दिनों के बाद लौटे हो।' डाकू बोला- 'मैं आपके बताये उस उपाय को बहुत आसान समझता था, लेकिन वह तो बहुत कठिन निकला। लोगों के सामने अपनी बुराइयां कहने में तो लाज आती है, सो मैंने बुरे काम करना ही छोड़ दिया है।'   ज़िन्दगी में बुरे अथवा गलत काम करना जितना आसान होता है उससे कही ज्यादा मुश्किल उन्हें स्वीकार करते हुए जीने में होता है।

Monday, December 11, 2017

कामना का बीज

 हिरण्यकशिपु के वधके पश्चात् भगवान नृसिंह ने भकित-शिरोमणि प्रहलाद से वरदान माँगने का अनुरोध किया. प्रहलाद के अस्वीकार करने पर भी वे बार-बार माँगने का आग्रह करते ही रहे. किन्तु इस आग्रह से प्रहलाद उदास हो गए। यद्यपि भगवान प्रसन्नता प्रगट करते हुए उनसे माँगने का आग्रह कर रहे थे, किन्तु उन्हें भगवान की इस प्रसन्नता में अपने अभाव का अनुभव हो रहा था। उन्होंने सोचा, अवश्य कहीं न कहीं मेरे अन्तःकरण में कामना का बीज विद्यमान है. भले ही मैं उसे नहीं देख पा रहा हूँ ; किन्तु अन्तर्यामी प्रभु उसे जानकर उसकी पूर्ति का आग्रह कर रहे हैं। और तब उन्होंने प्रभु से यही प्रार्थना की कि आप प्रसन्न हैं तो मेरे अन्तर्मन में छिपी हुई कामना को सर्वथा विनष्ट कर दीजिए।

Sunday, December 10, 2017

अनमोल भक्ति

एक समय की बात है. एक फकीर जो एक वृक्ष के नीचे ध्यान कर रहा था, रोज एक लकड़हारे को लकड़ी काटते ले जाते देखता था। एक दिन उससे कहा कि सुन भाई, दिन— भर लकड़ी काटता है, दो जून रोटी भी नहीं जुट पाती। तू जरा आगे क्यों नहीं जाता। वहां आगे चंदन का जंगल है। एक दिन काट लेगा, सात दिन के खाने के लिए काफी हो जाएगा। गरीब लकड़हारे को भरोसा तो नहीं आया, क्योंकि वह तो सोचता था कि जंगल को जितना वह जानता है और कौन जानता है! जंगल में ही तो जिंदगी बीती। लकड़ियां काटते ही तो जिंदगी बीती।  फिर भी उसने सोचा की  एक बार प्रयोग करके देख लेना जरूरी है। वो  गया। लौटा फकीर के चरणों में सिर रखा और कहा कि मुझे क्षमा करना, मेरे मन में बड़ा संदेह आया था, क्योंकि मैं तो सोचता था कि मुझसे ज्यादा लकड़ियां कौन जानता है। मगर मुझे चंदन की पहचान ही न थी।  मैं भी कैसा अभागा! काश, पहले पता चल जाता! फकीर ने कहा कोई फिक्र न करो, जब पता चला तभी जल्दी है।दिन बड़े मजे में कटने लगे। एक दिन काट लेता, सात— आठ दिन, दस दिन जंगल आने की जरूरत ही न रहती। एक दिन फकीर ने कहा; मेरे भाई, मैं सोचता था कि तुम्हें कुछ अक्ल आएगी। जिंदगी— भर तुम लकड़ियां काटते रहे, आगे न गए; तुम्हें कभी यह सवाल नहीं उठा कि इस चंदन के आगे भी कुछ हो सकता है? उसने कहा; यह तो मुझे सवाल ही न आया। क्या चंदन के आगे भी कुछ है? उस फकीर ने कहा : चंदन के जरा आगे जाओ तो वहां चांदी की खदान है। लकडिया—वकडिया काटना छोड़ो। एक दिन ले आओगे, दो—चार छ: महीने के लिए हो गया। अब तो भरोसा आया था। भागा। संदेह भी न उठाया। चांदी पर हाथ लग गए, तो कहना ही क्या! चांदी ही चांदी थी! चार—छ: महीने नदारद हो जाता। एक दिन आ जाता, फिर नदारद हो जाता। लेकिन आदमी का मन ऐसा मूढ़ है कि फिर भी उसे खयाल न आया कि और आगे कुछ हो सकता है। फकीर ने एक दिन कहा कि तुम कभी जागोगे कि नहीं, कि मुझी को तुम्हें जगाना पड़ेगा। आगे सोने की खदान है मूर्ख! तुझे खुद अपनी तरफ से सवाल, जिज्ञासा, मुमुक्षा कुछ नहीं उठती कि जरा और आगे देख लूं? अब छह महीने मस्त पड़ा रहता है, घर में कुछ काम भी नहीं है, फुरसत है। जरा जंगल में आगे देखकर देखूं यह खयाल में नहीं आता? उसने कहा कि मैं भी मंदभागी, मुझे यह खयाल ही न आया, मैं तो समझा चांदी, बस आखिरी बात हो गई, अब और क्या होगा? गरीब ने सोना तो कभी देखा न था, सुना था। फकीर ने कहा : थोड़ा और आगे सोने की खदान है। और ऐसे कहानी चलती है। फिर और आगे हीरों की खदान है। और ऐसे कहानी चलती है। और एक दिन फकीर ने कहा कि नासमझ, अब तू हीरों पर ही रुक गया? अब तो उस लकड़हारे को भी बडी अकड़ आ गई, बड़ा धनी भी हो गया था, महल खड़े कर लिए थे। उसने कहा अब छोड़ो, अब तुम मुझे परेशांन न करो। अब हीरों के आगे क्या हो सकता है?

उस फकीर ने कहा. हीरों के आगे मैं हूं। तुझे यह कभी खयाल नहीं आया कि यह आदमी मस्त यहां बैठा है, जिसे पता है हीरों की खदान का, वह हीरे नहीं भर रहा है, इसको जरूर कुछ और आगे मिल गया होगा! हीरों से भी आगे इसके पास कुछ होगा, तुझे कभी यह सवाल नहीं उठा?रोने लगा वह आदमी। सिर पटक दिया चरणों पर। कहा कि मैं कैसा मूढ़ हूं मुझे यह सवाल ही नहीं आता। तुम जब बताते हो, तब मुझे याद आता है। यह तो मेरे जन्मों—जन्मों में नहीं आ सकता था खयाल कि तुम्हारे पास हीरों से भी बड़ा कोई धन है।
फकीर ने कहा : उसी धन का नाम  भक्ति  है।

राजा की चाह

एक समय की बात है .एक राजा ने यह ऐलान करवा दिया  कि कल सुबह जब मेरे महल का मुख्य दरवाज़ा खोला जायेगा तब जिस ख़्स ने भी महल में जिस चीज़ को हाथ लगा दिया वह चीज़ उसकी हो जाएगी। इस ऐलान को सुनकर सब लोग आपस में बातचीत करने लगे कि मैं तो सबसे क़िमती चीज़ को हाथ लगाऊंगा। तो कुछ लोग कहने लगे मैं तो सोने को थ लगाऊंगा, कुछ लोग चादी को तो कुछ लोग कीमती जेवरात को, कुछ लोग घोड़ों को तो कुछ लोग हाथी को,  छ लोग दुधारू गाय को हाथ लगाने की बात कर रहे थे। जब सुबह महल का मुख्य दरवाजा खुला और सब लोग अपनी अपनी मनपसंद चीज़ों के लिये दौड़ने लगे। सबको इस बात की जल्दी थी कि पहले मैं अपनी मनपसंद चीज़ों को हाथ लगा दूँ ताकि वह चीज़ हमेशा के लिए मेरी हो जाऐ। राजा अपनी जगह पर बैठा सबको देख रहा था और अपने आस-पास हो रही भाग दौड़ को देखकर मुस्कुरा रहा था। उसी समय उस भीड़ में से एक शख्स राजा की तरफ बढ़ने लगा और धीरे-धीरे चलता हुआ राजा के पास पहुँच कर उसने राजा को छु लिया।राजा को हाथ लगाते ही राजा उसका हो गया और राजा की हर चीज भी उसकी हो गयी।

Wednesday, December 6, 2017

ईश्वर का न्याय

एक समय की बात है. एक रोज एक महात्मा अपने शिष्य के साथ भ्रमण पर निकले।   चलते हुए जब वो तालाब से होकर गुजर रहे थे, तो उन्होंने देखा कि एक धीवर नदी में जाल डाले हुए है। शिष्य यह सब देख खड़ा हो गया और धीवर को ‘अहिंसा परमोधर्म’ का उपदेश देने लगा। लेकिन धीवर कहाँ समझने वाला था, पहले उसने टालमटोल करनी चाही और बात जब बहुत बढ़ गयी तो शिष्य और धीवर के बीच झगड़ा शुरू हो गया। यह झगड़ा देख गुरूजी जो उनसे बहुत आगे बढ़ गए थे, लौटे और शिष्य को अपने साथ चलने को कहा एवं शिष्य को पकड़कर ले चले।
गुरूजी ने अपने शिष्य से कहा- “बेटा हम जैसे साधुओं का काम सिर्फ समझाना है, लेकिन ईश्वर ने हमें दंड देने के लिए धरती पर नहीं भेजा है!”  शिष्य ने पुछा- “महाराज! को तो बहुत से दण्डों के बारे में पता ही नही है और हमारे राज्य के राजा तो बहुतों को दण्ड ही नहीं देते हैं। तो आखिर इसको दण्ड कौन देगा?”
शिष्य की इस बात का जवाब देते हुए गुरूजी ने कहा- “बेटा! तुम निश्चिंत रहो इसे भी दण्ड देने वाली एक अलौकिक शक्ति इस दुनिया में मौजूद है जिसकी पहुँच सभी जगह है… ईश्वर की दृष्टि सब तरफ है और वो सब जगह पहुँच जाते हैं। इसलिए अभी तुम चलो, इस झगड़े में पड़ना गलत होगा, इसलिए इस झगड़े से दूर रहो।”
शिष्य गुरुजी की बात सुनकर संतुष्ट हो गया और उनके साथ चल दिया। इस बात के दो वर्ष बाद एक दिन गुरूजी और शिष्य दोनों उसी तालाब से होकर गुजरे, शिष्य अब दो साल पहले की वह धीवर वाली घटना भूल चुका था। उन्होंने उसी तालाब के पास देखा कि एक घायल साँप बहुत कष्ट में था उसे हजारों चीटियाँ नोच-नोच कर खा रही थीं। शिष्य ने यह दृश्य देखा और उससे रहा नहीं गया, दया से उसका ह्रदय पिघल गया था। वह सर्प को चींटियों से बचाने के लिए जाने ही वाला था कि गुरूजी ने उसके हाथ पकड़ लिए और उसे जाने से मना करते हुए कहा-“ बेटा! इसे अपने कर्मों का फल भोगने दो। यदि अभी तुमने इसे बचाया तो इस बेचारे को फिर से दुसरे जन्म में यह दुःख भोगने होंगे क्योंकि कर्म का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है।
शिष्य ने गुरूजी से पुछा- “गुरूजी इसने ऐसा कौन-सा कर्म किया है जो इस दुर्दशा में यह फँसा है?”
गुरू महाराज बोले- “यह वही धीवर है जिसे तुम पिछले वर्ष इसी स्थान पर मछली न मारने का उपदेश दे रहे थे और वह तुम्हारे साथ लड़ने के लिए आग-बबूला हुआ जा रहा था। वे मछलियाँ ही चींटीयाँ है जो इसे नोच-नोचकर खा रही है।”
यह सुनते ही बड़े आश्चर्य से शिष्य ने कहा- गुरूजी, यह तो बड़ा ही विचित्र न्याय है।”
शिष्य बोला- “गुरुदेव तो क्या अगर कोई दुर्दशा में पडा हो तो उसे उसका कर्म मान कर उसकी मदद नहीं करनी चाहिए?”  गुरुजी बोले- “करनी चाहिए, अवश्य करनी चाहिए। यहाँ पर तो मैने तुम्हें इसलिए रोक दिया क्योंकि मुझे पता था कि वह किस कर्म को भुगत रहा है। साथ ही मुझे तुमको ईश्वर के न्याय का नमूना भी दिखाना था। लेकिन अगर मै यह सब नहीं जानता तो उसकी मदद न करना मेरा पाप होता, इसलिए तब मै भी अवश्य उसकी मदद करता।“
शिष्य गुरुजी की बात स्पष्ट रूप से समझ चुका था।


पश्चाताप

एक समय की बात है. एक सूफी संत थे, बड़े ईश्वरभक्त। पांच दफे नमाज पढ़ने का उनका नियम था। एक रोज थके मांदे थे, सो गए। जब नमाज का वक्त आ गया तो किसी ने आकर उन्हें जगाया, हिलाकर कहा, उठो उठो, नमाज का वक्त हो गया है। वे तत्काल ही उठ बैठे और बड़े कृतज्ञ हुए, कहने लगे, भाई, तुमने मेरा बड़ा काम किया, मेरी इबादत रह जाती तो क्या होता! अच्छा अपना नाम तो बताओ। उस आदमी ने कहा, अब नाम रहने दो, उससे झंझट होगी। लेकिन संत ने कहा, कम से कम नाम तो जानूं र तुम्हें धन्यवाद तो दूं। तो उसने कहा, पूछते ही हो तो कह देता हूं मेरा नाम इबलीस है। इबलीस है शैतान का नाम। संत तो हैरान हुए, बोले, इबलीस? शैतान? अरे, तुम्हारा काम तो लोगों को इबादत से, धर्म से रोकना है, फिर तुम मुझे जगाने क्यों आए? यह बात तो बड़ी अटपटी है। सुनी नहीं, पढ़ी नहीं, न आंखों देखी, न कानों सुनी, शास्त्रों में कहीं उल्लेख नहीं कि इबलीस और किसी को जगाता हो कि उठो उठो, नमाज का वक्त हो गया। तुम्हें हो क्या गया है? क्या तुम्हारा दिल बदल गया है?

शैतान ने कहा, नहीं भैया, इसमें मेरा ही फायदा है। एक बार पहले भी तुम ऐसे ही सो गए थे; नमाज का वक्त बीत गया तो मैं बहुत खुश हुआ था, लेकिन जब तुम जागे तो इतना रोए, इतने दुखी हुए, इतने हृदय से तुमने ईश्वर को पुकारा और इतनी तुमने कसमें खायी कि अब कभी नहीं सोऊंगा, अब कभी भूल नहीं करूंगा, अब मुझे क्षमा कर दो। तब से वर्षों बीत गए हैं, तब से तुम सोए नहीं, तब से तुम नमाज ही नहीं चूके। अब मैंने देखा कि आज तुम फिर सो गए हो, अगर मैं तुम्हें न जगाऊं तो और कठिनाई होगी, तुम इससे भी कुछ पाठ लोगे। तो मैंने सोचा एक दफे नमाज पढ़ लो, वही ज्यादा ठीक है। उसमें मेरी कम हानि है। क्योंकि पिछली दफे तुम चूके, उससे तुम्हें जितना लाभ हुआ, उतना तुमने जितनी नमाजें जिंदगीभर की थीं उनसे भी न हुआ था।

Saturday, December 2, 2017

ईश्वर की इच्छा

एक समय की बात है. संत राबिया एक दिन बहुत बीमार हो गईं| एक साधक उनसे मिलने आया| राबिया की हालत देखकर उसे बड़ा दुख हुआ, पर कहे तो क्या कहे|  राबिया उसके मन की बात ताड़ गईं| उन्होंने कहा - "तुम कुछ कहना चाहते हो, कहो|" उस साधक ने कहा - "आप इतनी बीमार हो| ईश्वर से प्रार्थना करो, वह आपकी बीमारी को दूर कर देंगे|" राबिया उसकी बात सुनकर हंस पड़ीं| बोलीं - "क्या तुम्हें पता नहीं कि बीमारी किसकी इच्छा से होती है? क्या मेरी बीमारी में प्रभु का हाथ नहीं है?" साधक बोला - "आप ठीक कहती हैं| बिना उसकी इच्छा के कुछ भी नहीं हो सकता|"

"तब!" राबिया ने कहा - "तुम मुझसे कैसे कहते हो कि मैं उसकी इच्छा के खिलाफ बीमारी से छुटकारा पाने के लिए उससे प्रार्थना करूं? उसे जिस दिन ठीक करना होगा, अपने आप कर देगा|"

Friday, December 1, 2017

भक्ति प्रेम

एक गोपी यमुना किनारे बैठी प्राणायाम कर रही थी। तभी वहां नारद जी वीणा बजाते हुए आये,नारद जी बड़े ध्यान से देखने लगे गोपी कर क्या रही है क्योकि व्रज में कोई ध्यान लगाये ये बात उन्हें हजम ही नहीं हो रही थी बहुत देर तक विचार करते रहने पर भी उन्हें समझ नहीं आया तो वे गोपी के और निकट गए और गोपी से बोले,"देवी! ये आप क्या कर रही है, बहुत देर तक विचार करने पर भी मुझे समझ नहीं आ रहा क्योंकि व्रज में कोई ध्यान लगाये,वो भी इस तरह प्राणायाम आदि नियमों सहित ऐसा तो व्रज में कभी सुना नहीं फिर ऐसा क्या हो गया कि आपको ध्यान लगाने की आवश्यकता पड़ गई?" गोपी बोली,"नारद जी!मै जब भी कोई काम करती हूं तो कर नहीं पाती हर समय वो नंद का छोरा आंखों में बसा रहता है,घर लीपती हूं तो गोवर में वही दिखता है लीपना तो वही छूट जाता है और कृष्ण के ध्यान में ही डूब जाती हूं,रोटी बनाती हूं तो जैसे ही आटा गूदती हूं, तो नरम-नरम आटा में कृष्ण के कोमल चरणों का आभास होता है, आटा तो वैसा ही रखा रह जाता है और में कृष्ण की याद में खो जाती हूं, कहां तक बताऊ नारद जी, जल भरने यमुना जी जाती हूं तो यमुना जी में,जल की गागर में, रास्ते में, हर कहीं नंदलाला ही दिखायी देते हैं। मै इतना परेशान हो गई हूं कि कृष्ण को ध्यान से निकालने के लिए ध्यान लगाने बैठी हूं।" हमें तो भगवान को याद करना पड़ता है,भगवान को याद करने के लिए ध्यान लगाना पड़ता है,और गोपी को ध्यान से निकलने के लिए ध्यान में बैठना पड़ता है। गोपी की हर क्रिया में कृष्ण है, गोपी ने अपने ह्रदय में केवल कृष्ण को बैठा रखा है  

Tuesday, November 21, 2017

प्रारब्ध

एक समय की बात है.एक गुरूजी थे । हमेशा ईश्वर के नाम का जाप किया करते थे । काफी बुजुर्ग हो गये थे । उनके कुछ शिष्य साथ मे ही पास के कमरे मे रहते थे । जब भी गुरूजी को शौच; स्नान आदि के लिये जाना होता था; वे अपने शिष्यो को आवाज लगाते थे और शिष्य ले जाते थे । धीरे धीरे कुछ दिन बाद शिष्य दो तीन बार आवाज लगाने के बाद भी कभी आते कभी और भी देर से आते ।  एक दिन रात को निवृत्त होने के लिये जैसे ही गुरूजी आवाज लगाते है, तुरन्त एक बालक आता है और बडे ही कोमल स्पर्श के साथ गुरूजी को निवृत्त करवा कर बिस्तर पर लेटा जाता है । अब ये रोज का नियम हो गया ।  एक दिन गुरूजी को शक हो जाता है कि, पहले तो शिष्यों को तीन चार बार आवाज लगाने पर भी देर से आते थे । लेकिन ये बालक तो आवाज लगाते ही दूसरे क्षण आ जाता है और बडे कोमल स्पर्श से सब निवृत्त करवा देता है । एक दिन गुरूजी उस बालक का हाथ पकड लेते है और पूछते कि सच बता तू कौन है ? मेरे शिष्य तो ऐसे नही हैं । वो बालक के रूप में स्वयं ईश्वर थे; उन्होंने गुरूजी को स्वयं का वास्तविक रूप दिखाया। गुरूजी रोते हुये कहते है : हे प्रभु आप स्वयं मेरे निवृत्ती के कार्य कर रहे है । यदि मुझसे इतने प्रसन्न हो तो मुक्ति ही दे दो ना । प्रभु कहते है कि जो आप भुगत रहे है वो आपके प्रारब्ध है । आप मेरे सच्चे साधक है; हर समय मेरा नाम जप करते है इसलिये मै आपके प्रारब्ध भी आपकी सच्ची साधना के कारण स्वयं कटवा रहा हूँ ।गुरूजी कहते है कि क्या मेरे प्रारब्ध आपकी कृपा से भी बडे है; क्या आपकी कृपा, मेरे प्रारब्ध नही काट सकती है ।प्रभु कहते है कि, मेरी कृपा सर्वोपरि है; ये अवश्य आपके प्रारब्ध काट सकती है; लेकिन फिर अगले जन्म मे आपको ये प्रारब्ध भुगतने फिर से आना होगा । यही कर्म नियम है । इसलिए आपके प्रारब्ध स्वयं अपने हाथो से कटवा कर इस जन्म-मरण से आपको मुक्ति देना चाहता हूँ ।


जीवन की नाव

एक समय की बात है.एक पूर्णिमा की रात में एक छोटे-से गांव में, एक बड़ी अदभुत घटना घट गई। कुछ जवान लड़कों ने शराबखाने में जाकर शराब पी ली और जब वे शराब के नशे में मदमस्त हो गये और शराब-घर से बाहर निकले तो चांद की बरसती चांदनी में उन्हें यह खयाल आया कि नदी पर जायें और नौका-विहार करें । वे गीत गाते हुए नदी के किनारे पहुंच गये। नाव वहां बंधी थी। मछुए नाव बांधकर घर जा चुके थे। रात आधी हो गयी थी। वे एक नाव में सवार हो गये। उन्होंने पतवार उठा ली और नाव खेना शुरू किया। फिर वे रात देर तक नाव खेते रहे। सुबह की ठण्ड़ी हवाओं ने उन्हें सचेत किया। जब उनका नशा कुछ कम हुआ तो उनमें से किसी ने पूछा, ‘‘कहां आ गये होंगे अब तक हम। आधी रात तक हमने यात्रा की, न-मालूम कितनी दूर तक निकल आये होंगे। नीचे उतर कर कोई देख ले कि किस दिशा में हम चल रहे हैं, कहां पहुंच रहे हैं?”
जो नीचे उतरा था, वह नीचे उतर कर हंसने लगा। उसने कहा, ‘‘दोस्तो! तुम भी उतर आओ। हम कहीं भी नहीं पहुंचे हैं। हम वहीं खड़े हैं, जहां रात नाव खडी थी।
वे बहुत हैरान हुए। रात भर उन्होंने पतवार चलायी थी और पहुंचे कहीं भी नहीं थे! नीचे उतर कर उन्होंने देखा तो पता चला, नाव की जंजीरें किनारे से बंधी रह गयी थीं, उन्हें वे खोलना भूल गये थे!जीवन भी, पूरे जीवन नाव खेने पर, पूरे जीवन पतवार खेने पर कहीं पहुंचता हुआ मालूम नहीं पड़ता। मरते समय आदमी वहीं पाता है स्वयं को, जहां वह जन्मा था! ठीक उसी किनारे पर, जहां आंख खोली थी- आंख बंद करते समय आदमी पाता है कि वहीं खड़ा है। और तब बड़ी हैरानी होती है कि इतनी जो दौड़- धूप की, उसका क्या हुआ? वह जो प्रण किया था कहीं पहुंचने का, वह जो यात्रा की थी कहीं पहुंचने के लिए, वह सब निष्फल गयी! मृत्यु के क्षण में आदमी वहीं पाता है अपने को, जहां वह जन्म के क्षण में था! तब सारा जीवन एक सपना मालुम पड़ने लगता है। नाव कहीं बंधी रह गयी किसी किनारे से।

Monday, November 20, 2017

सच्ची नमाज़

एक समय की बात है.नानक एक मुसलमान नवाब के घर मेहमान थे। नानक को क्या हिंदू क्या मुसलमान! जो ज्ञानी है, उसके लिए कोई संप्रदाय की सीमा नहीं। उस नवाब ने नानक को कहा कि अगर तुम सच ही कहते हो कि न कोई हिंदू न कोई मुसलमान, तो आज शुक्रवार का दिन है, हमारे साथ नमाज पढ़ने चलो। नानक राजी हो गए। पर उन्होंने कहा कि अगर तुम नमाज पढ़ोगे तो हम भी पढ़ेंगे। नवाब ने कहा, यह भी कोई शर्त की बात हुई? हम पढ़ने जा ही रहे हैं। पूरा गांव इकट्ठा हो गया। मुसलमान-हिंदू सब इकट्ठे हो गए। हिंदुओं में तहलका मच गया। नानक के घर के लोग भी पहुंच गए कि यह क्या कर रहे हो? लोगों को लगा कि नानक मुसलमान होने जा रहे हैं।  नानक मस्जिद गए। नमाज पढ़ी गई। नवाब बहुत नाराज हुआ। बीच-बीच में लौट-लौट कर देखता था कि नानक न तो झुके, न नमाज पढ़ी। बस खड़े हैं। जल्दी-जल्दी नमाज पूरी की, क्योंकि क्रोध में कहीं नमाज हो सकती है! करके किसी तरह पूरी, नानक पर लोग टूट पड़े। और उन्होंने कहा, तुम धोखेबाज हो। कैसे साधु, कैसे संत! तुमने वचन दिया नमाज पढ़ने का और तुमने की नहीं।

नानक ने कहा, वचन दिया था, शर्त आप भूल गए। कहा था कि अगर आप नमाज पढ़ोगे तो मैं पढूंगा। आपने नहीं पढ़ी तो मैं कैसे पढ़ता? नवाब ने कहा, क्या कह रहे हो? होश में हो? इतने लोग गवाह हैं कि हम नमाज पढ़ रहे थे। नानक ने कहा, इनकी गवाही मैं नहीं मानता, क्योंकि मैं आपको देख रहा था भीतर क्या चल रहा है। आप काबुल में घोड़े खरीद रहे थे। नवाब थोड़ा हैरान हुआ; क्योंकि खरीद वह घोड़े ही रहा था। उसका अच्छे से अच्छा घोड़ा मर गया था उसी दिन सुबह। वह उसी की पीड़ा से भरा था। नमाज क्या खाक! वह यही सोच रहा था कि कैसे काबुल जाऊं, कैसे बढ़िया घोड़ा खरीदूं, क्योंकि वह घोड़ा बड़ी शान थी, इज्जत थी। और नानक ने कहा, यह जो मौलवी है तुम्हारा, जो पढ़वा रहा था नमाज, यह खेत में अपनी फसल काट रहा था। और यह बात सच थी। मौलवी ने भी कहा कि बात तो यह सच है। फसल पक गयी है और काटने का दिन आ गया है, गांव में मजदूर नहीं मिल रहे हैं और चिंता मन पर सवार है।

तो नानक ने कहा, अब तुम बोलो, तुमने नमाज पढ़ी जो मैं साथ दूं?

अकेला परमात्मा

एक समय की बात है. एक मुसलमान सूफी फकीर ने एक रात्रि स्वप्न देखा कि वह स्वर्ग में पहुंच गया है और उसने वहां यह भी देखा कि स्वर्ग में बहुत बड़ा समारोह मनाया जा रहा है। सारे रास्ते सजे हैं। बहुत दीप जले हैं। बहुत फूल रास्ते के किनारे लगे हैं। सारे पथ और सारे महल सभी प्रकाशित हैं। उसने जाने वालों से पूछा, आज क्या है? क्या कोई समारोह है? और उसे ज्ञात हुआ कि आज भगवान का जन्मदिन है और उनकी सवारी निकलने वाली है। वह एक दरख्त के पास खड़ा हो गया।

लाखों लोगों की बहुत बड़ी शोभायात्रा निकल रही है। सामने घोड़े पर एक अत्यंत प्रतिभाशाली व्यक्ति बैठा हुआ है। उसने लोगों से पूछा, यह प्रकाशवान व्यक्ति कौन है? ज्ञात हुआ कि यह ईसा मसीह हैं और उनके पीछे उनके अनुयायी हैं। लाखों-करोड़ों उनके अनुयायी हैं। उनके निकल जाने के बाद वैसे ही दूसरे व्यक्ति की सवारी निकली, तब फिर उसने पूछा कि यह कौन हैं? उसे ज्ञात हुआ, यह हजरत मोहम्मद हैं। वैसे ही लाखों लोग उनके पीछे हैं। फिर बुद्ध हैं। फिर महावीर हैं, जरथुस्त्र हैं, कनफ्यूशियस हैं और सबके पीछे करोड़ों-करोड़ों लोग हैं। जब सारी शोभायात्रा निकल गई तो पीछे अत्यंत दीन और दरिद्र सा एक वृद्ध घोड़े पर सवार है। उसके पीछे कोई नहीं है। उसने पूछा, यह कौन है? और ज्ञात हुआ कि यह स्वयं परमात्मा हैं। घबराकर उसकी नींद खुल गई और हैरान हुआ...।

 लोग क्राइस्ट के साथ हैं, बुद्ध के साथ हैं, राम के साथ हैं, कृष्ण के साथ हैं, परमात्मा के साथ कोई भी नहीं है। जिसे परमात्मा के साथ होना हो उसे बीच में किसी मध्यस्थ को लेने की कोई भी जरूरत नहीं। और जो परमात्मा के साथ हो, वह स्मरण रखे कि क्राइस्ट के साथ हो ही जाएगा, लेकिन जो क्राइस्ट के साथ है, अनिवार्य नहीं है कि वह परमात्मा के साथ हो जाएगा। जो परमात्मा के साथ है, वह राम, बुद्ध, कृष्ण और महावीर के साथ हो ही जाएगा, लेकिन जो उनके साथ है स्मरण रखे कि अनिवार्य नहीं कि वह परमात्मा के साथ हो जाएगा।
और फिर यह भी स्मरण रहे कि जो बुद्ध के साथ है, कृष्ण के विरोध में है; और जो क्राइस्ट के साथ है और राम के विरोध में है; और जो महावीर के साथ है तथा कनफ्यूशियस के विरोध में है, वह कभी परमात्मा के साथ नहीं हो सकता। जो परमात्मा के साथ है वह एक ही साथ क्राइस्ट, राम, बुद्ध, महावीर सबके साथ हो जाता है।

चढ़ावा

एक समय की बात है. एक बुढ़िया जो कुछ उसके पास होता सभी परमात्मा पर चढ़ा देती। यहां तक कि सुबह वह जो घर का कचरा वगैरह फेंकती, वह भी घूरे पर जाकर कहती: तुझको ही समर्पित। लोगों ने जब यह सुना तो उन्होंने कहा, यह तो हद हो गई ! फूल चढ़ाओ, मिष्ठान चढ़ाओ...कचरा ? एक फकीर गुजर रहा था, उसने एक दिन सुना कि वह बुढ़िया गई घूरे पर, उसने जाकर सारा कचरा फेंका और कहा: हे प्रभु, तुझको ही समर्पित! उस फकीर ने कहा कि बाई, ठहर ! मैंने बड़े—बड़े संत देखे.......तू यह क्या कह रही है ?

उसने कहा, मुझसे मत पूछो; उससे ही पूछो। जब सब दे दिया तो कचरा क्या मैं बचाऊं ? मैं ऐसी नासमझ नहीं।
उस फकीर ने उस रात एक स्वप्न देखा कि वह स्वर्ग ले जाया गया है। परमात्मा के सामने खड़ा है। स्वर्ण—सिंहासन पर परमात्मा विराजमान है। सुबह हो रही है, सूरज ऊग रहा है, पक्षी गीत गाने लगे—सपना देख रहा है—और तभी अचानक एक टोकरी भर कचरा आ कर परमात्मा के सिर पर पड़ा और उसने कहा कि यह बाई भी एक दिन नहीं चूकती! फकीर ने कहा कि मैं जानता हूं इस बाई को। कल ही तो मैंने इसे देखा था और कल ही मैंने उससे कहा था कि यह तू क्या करती है? लेकिन घंटे भर वहां रहा फकीर, बहुत—से लोगों को जानता था जो फूल चढ़ाते हैं, मिष्ठान्न चढ़ाते हैं, वे तो कोई नहीं आए। उसने पूछा परमात्मा को कि फूल चढ़ाने वाले लोग भी हैं...सुबह ही से तोड़ते हैं, पड़ोसियों के वृक्षों में से तोड़ते हैं। अपने वृक्षों के फूल कौन चढ़ाता है! आसपास से फूल तोड़कर चढ़ाते हैं......उनके फूल तो कोई गिरते नहीं दिखते ?

परमात्मा ने उस फकीर को कहा, जो आधा—आधा चढ़ाता है, उसका पहुंचता नहीं। इस स्त्री ने सब कुछ चढ़ा दिया है, कुछ नहीं बचाती, जो है सब चढ़ा दिया है। समग्र जो चढ़ाता है, उसका ही पहुंचता है।
घबड़ाहट में फकीर की नींद खुल गई। पसीने—पसीने हो रहा था, छाती धड़क रही थी। क्योंकि अब तक की मेहनत, उसे याद आया कि व्यर्थ गई। मैं भी तो छांट—छांट कर चढ़ाता रहा।

श्रद्धा

 एक समय की बात है. एक शिष्य अपने गुरु के आश्रम में कई वर्षों तक रहा। उसने उनसे शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया। एक दिन उसने देखा कि उसके गुरु पानी पर चले आ रहे हैं। यह देखकर उसे बहुत हैरानी हुई। जब गुरु पास में आए तो वह उनके पैरों पर गिरकर बोला, 'आप तो बड़े चमत्कारी हैं।यह रहस्य आपने अब तक क्यों छिपाए रखा?कृपया मुझे भी यह सूत्र बताइए कि पानी पर किस प्रकार चला जाता है,अन्यथा मैं आप के पैर नहीं छोडूंगा?' गुरु ने कहा, 'उसमें कोई रहस्य नहीं है। बस भरोसा करने की बात है। श्रद्धा चाहिए। श्रद्धा हो तो सब कुछ संभव है।इसके लिए उसका नाम स्मरण ही पर्याप्त है जिसके प्रति तुम भक्ति रखते हो। 'वह शिष्य अपने गुरु का नाम रटने लगा।अनेक बार नाम जपने के बाद उसने पानी पर चलने की बात सोची पर जैसे ही पानी में उतरा डुबकी खा गया। मुंह में पानी भर गया। बड़ी मुश्किल से बाहर आया। बाहर आकर वह बड़ा क्रोधित हुआ। गुरु के पास जाकर बोला, 'आपने तो मुझे धोखा  या। मैंने कितनी ही बार आप का नाम जपा, फिर भी डुबकी खा गया। यों मैं तैरना भी जानता हूं। मगर मैंने सोचा कि बहुत जप लिया नाम। अब तो पूरी हो गई होगी श्रद्धा वाली शर्त और जैसे ही पानी पर उतरा डूबने लगा। सारे कपड़े खराब हो गए। कुछ बात जंची नहीं। ' गुरु ने कहा, 'कितनी बार नाम का जाप किया?' शिष्य ने कहा, ' हजार से भी ऊपर। किनारे पर खड़े- खड़े भी किया। पानी पर उतरते समय भी और डूबते-डूबते भी करता रहा। ' गुरु ने कहा, 'बस तुम्हारे डूबने का यही कारण है। मन में सच्ची श्रद्धा होती तो बस एक बार का जाप ही पर्याप्त था। बस एक बार नाम ले लेते तो बात बन जाती।  सच्ची श्रद्धा गिनती नहीं अपने ईष्ट के प्रति समर्पण मांगती है।


बुद्धिमान वैद्य

एक समय की बात हैपुराने जमाने की बात है एक सेठ था। सेठ जिद्दी और बदपरहेज था। जवानी में ही खाँसी ने उसे परेशान कर रखा था। घरेलू इलाज से खाँसी ठीक नहीं हुई। होती भी कैसे? खाँसी के लिए दही अच्‍छा नहीं होता लेकिन सेठ जी दही के बिना भोजन ही नहीं करते थे। इससे खाँसी बढ़ती ही जाती थी। सेठ बहुत धनवान था। इसलिए शहर के अच्छे-अच्‍छे डॉक्टर, वैद्य, हकीम सबको दिखाया गया किंतु सेठ की खाँसी ठीक नहीं हुई। ठीक न होने का कारण था 'दही'। सेठ जी को बहुत लोगों ने समझाया लेकिन सेठ जी के समझ में बात नहीं आई।

एक बहुत बुद्धिमान वैद्य थे, वे सेठ जी का इलाज करने के लिए तैयार हो गए। सेठ बोला - 'वैद्य जी! एक बात मेरी सुन लो, मैं दही खाना नहीं छोड़ूँगा वैद्य ने कहा - 'कौन कहता है आपसे दही छोड़ने को। आप एक समय दही खाते हैं तो दोनों समय दही खाना शुरू कर दीजिए। यदि दो समय दही खाते हों तो चार समय खाना शुरू कर दीजिए।'

सेठ खुश हुआ कि यह वैद्य तो बहुत अच्छा है। वैद्य ने सेठ को बताया कि दही खाने के तीन लाभ हैं सेठ ने बड़ी उत्सुकता से पूछा - 'वे कौन से लाभ हैं? वैद्य जी बोले सर्वप्रथम तो घर में चोरी नहीं होती, दूसरा कुत्ता भी नहीं काटता, तीसरा उसको बुढ़ापा कभी नहीं आता।' सेठ ने सुना, वैद्य जी की बातों पर गौर भी किया, किंतु उसको इस बात का सिर पैर नहीं मिला। आखिर हारकर सेठ जी ने वैद्य जी से पूछा - 'वैद्य जी बात मेरी समझ में नहीं आई। वैद्य ने कहा - 'देखो सेठ जी! दही खाते रहने से खाँसी ठीक नहीं होती। खाँसी होने से दिन-रात आदमी खाँसता ही रहता है। यदि वह खाँसता ही रहता है, तो चोर चोरी कैसे कर सकता है। सेठ ने कहा - 'यह बात तो आपकी ठीक है।' अब दूसरी बात भी समझाइए।'

दूसरी बात भी सीधी-सादी है। वैद्य जी बोले - 'आप अपने को ही देख लीजिए। जब से आपको खाँसी हुई है तब से आप बहुत कमजोर हो गए हैं और उसका फल यह है कि आपके हाथ में लाठी हमेशा रहती है। जहाँ जाते हो लाठी के साथ ही जाते हो। कुत्ता लाठी देखकर आपके पास फटकेगा भी नहीं, काटने की बात तो दूर की है।' दूसरी बात सुनकर सेठ जी चुप हो गए। सेठ जी को फिक्र होने लगी फिर भी बोले - 'तीसरी बात क्या है।'

तीसरी बात तो सेठ जी ऐसी है है अब तुम ही जानों कमजोर आदमी कितने दिन जी सकता है। खाँसी में दही खाने वाला मरीज तो जवानी भी पूरी नहीं काट सकता इसलिए बुढ़ापा उसके पास फटकेगा कैसे?' वैद्य जी बात समाप्त करके चुप हो गए।

उस दिन के बाद सेठ जी ने दही नहीं खाया। दही में उनको अपनी मौत दिखाई देती थी। सेठ जी ने मौत के डर से दही छोड़ा तो खाँसी ने भी उनका साथ छोड़ दिया


Sunday, November 19, 2017

अमर फल

एक समय की बात हैएक राजा हुए थे, भर्तृहरि। उनकी पत्नी अत्यंत रूपवती थीं।  उन्हीं के राज्य में एक ब्राह्मण भी रहता था, जिसने अपनी नि:स्वार्थ पूजा से देवता को प्रसन्न कर लिया। देवता ने उसे वरदान के रूप में अमर फल देते हुए कहा कि इससे आप लंबे समय तक युवा रहोगे। ब्राह्मण ने सोचा कि भिक्षा मांग कर जीवन बिताता हूं, मुझे लंबे समय तक जी कर क्या करना है। हमारा राजा बहुत अच्छा है, उसे यह फल दे देता हूं। वह लंबे समय तक जीएगा तो प्रजा भी लंबे समय तक सुखी रहेगी। वह राजा के पास गया और उनसे सारी बात बताते हुए वह फल उन्हें दे आया। राजा फल पाकर प्रसन्न हो गया। फिर मन ही मन सोचा कि यह फल मैं अपनी पत्नी को दे देता हूं। वह ज्यादा दिन युवा रहेगी तो ज्यादा दिनों तक उसके साहचर्य का लाभ मिलेगा। अगर मैंने फल खाया तो वह मुझ से पहले ही मर जाएगी और उसके वियोग में मैं भी नहीं जी सकूंगा। उसने वह फल अपनी पत्नी को दे दिया। लेकिन, रानी तो नगर के कोतवाल से प्यार करती थी। वह अत्यंत सुदर्शन, हृष्ट-पुष्ट और बातूनी था। अमर फल उसको देते हुए रानी ने कहा कि इसे खा लेना, इससे तुम लंबी आयु प्राप्त करोगे और मुझे सदा प्रसन्न करते रहोगे। फल ले कर कोतवाल जब महल से बाहर निकला तो सोचने लगा कि रानी के साथ तो मुझे धन-दौलत के लिए झूठ-मूठ ही प्रेम का नाटक करना पड़ता है। और यह फल खाकर मैं भी क्या करूंगा। इसे मैं अपनी परम मित्र राज नर्तकी को दे देता हूं। वह कभी मेरी कोई बात नहीं टालती। मैं उससे प्रेम भी करता हूं। और यदि वह सदा युवा रहेगी, तो दूसरों को भी सुख दे पाएगी। उसने वह फल अपनी उस नर्तकी मित्र को दे दिया। राज नर्तकी ने कोई उत्तर नहीं दिया और चुपचाप वह अमर फल अपने पास रख लिया। कोतवाल के जाने के बाद उसने सोचा कि कौन मूर्ख यह पाप भरा जीवन लंबा जीना चाहेगा। हमारे देश का राजा बहुत अच्छा है, उसे ही लंबा जीवन जीना चाहिए। यह सोच कर उसने किसी प्रकार से राजा से मिलने का समय लिया और एकांत में उस फल की महिमा सुना कर उसे राजा को दे दिया। और कहा कि महाराज, आप इसे खा लेना। राजा फल को देखते ही पहचान गया और भौंचक रह गया। पूछताछ करने से जब पूरी बात मालूम हुई, तो उसे वैराग्य
हो गया और वह राज-पाट छोड़ कर जंगल में चला गया।

वस्त्र की कीमत

एक समय की बात हैएक नगर में एक जुलाहा रहता था। वह स्वाभाव से अत्यंत शांत, नम्र तथा वफादार था।उसे क्रोध तो कभी आता ही नहीं था। एक बार कुछ लड़कों को शरारत सूझी। वे सब उस जुलाहे के पास यह सोचकर पहुँचे कि देखें इसे गुस्सा कैसे नहीं आता ? उन में एक लड़का धनवान माता-पिता का पुत्र था। वहाँ पहुँचकर वह बोला यह साड़ी कितने की दोगे ? जुलाहे ने कहा – दस रुपये की। तब लडके ने उसे चिढ़ाने के उद्देश्य से साड़ी के दो टुकड़े कर दिये और एक टुकड़ा हाथ में लेकर बोला –मुझे पूरी साड़ी नहीं चाहिए, आधी चाहिए। इसका क्या दाम लोगे ? जुलाहे ने बड़ी शान्ति से कहा पाँच रुपये। लडके ने उस टुकड़े के भी दो भाग किये और दाम पूछा ? जुलाहा अब भी शांत था। उसने बताया – ढाई रुपये। लड़का इसी प्रकार साड़ी के टुकड़े करता गया। अंत में बोला – अब मुझे यह साड़ी नहीं चाहिए। यह टुकड़े मेरे किस काम के ? जुलाहे ने शांत भाव से कहा – बेटे ! अब यह टुकड़े तुम्हारे ही क्या, किसी के भी काम के नहीं रहे।  अब लडके को शर्म आई और कहने लगा – मैंने आपका नुकसान किया है। अंतः मैं आपकी साड़ी का दाम दे देता हूँ। संत जुलाहे ने कहा कि जब आपने साड़ी ली ही नहीं तब मैं आपसे पैसे कैसे ले सकता हूँ ? लडके का अभिमान जागा और वह कहने लगा कि ,मैं बहुत अमीर आदमी हूँ। तुम गरीब हो। मैं रुपये दे दूँगा तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ेगा, पर तुम यह घाटा कैसे सहोगे ? और नुकसान मैंने किया है तो घाटा भी मुझे ही पूरा करना चाहिए। संत जुलाहे मुस्कुराते हुए कहने लगे – तुम यह घाटा पूरा नहीं कर सकते। सोचो, किसान का कितना श्रम लगा तब कपास पैदा हुई। फिर मेरी स्त्री ने अपनी मेहनत से उस कपास को बीना और सूत काता। फिर मैंने उसे रंगा और बुना। इतनी मेहनत तभी सफल हो जब इसे कोई पहनता, इससे लाभ उठाता, इसका उपयोग करता। पर तुमने उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले। रुपये से यह घाटा कैसे पूरा होगा ?लाहे की आवाज़ में आक्रोश के स्थान पर अत्यंत दया और सौम्यता थी। लड़का शर्म से पानी-पानी हो गया। उसकी आँखे भर आई और वह संत के पैरो में गिर गया। जुलाहे ने बड़े प्यार से उसे उठाकर उसकी पीठ पर हाथ फिराते हुए कहा –बेटा, यदि मैं तुम्हारे रुपये ले लेता तो है उस में मेरा काम चल जाता। पर तुम्हारी ज़िन्दगी का वही हाल होता जो उस साड़ी का हुआ। कोई भी उससे लाभ नहीं होता। साड़ी एक गई, मैं दूसरी बना दूँगा। पर तुम्हारी ज़िन्दगी एक बार अहंकार में नष्ट हो गई तो दूसरी कहाँ से लाओगे तुम ? तुम्हारा पश्चाताप ही मेरे लिए बहुत कीमती है।

शिष्य और शिष्यत्व

एक समय की बात है। एक गुरु अपने आश्रम को लेकर बहुत चिंतित थे, क्योंकि गुरु वृद्ध हो चले थे लेकिन उन्हें यह चिंता सताए जा रही थी कि मेरी जगह कौन योग्य उत्तराधिकारी हो, जो आश्रम को ठीक तरह से संचालित कर सके. उनके आश्रम में दो योग्य शिष्य थे और दोनों ही गुरु को बहुत प्रिय थे। एक दिन गुरु ने उनको बुलाया और कहा - मेरे प्यारे शिष्यों, मैं तीर्थ पर जा रहा हूं और तुमसे गुरुदक्षिणा के रूप में बस इतना ही मांगता हूं कि यह दो मुट्ठी गेहूं है। एक-एक मुट्ठी तुम दोनों अपने पास संभालकर रखो और जब मैं आऊं तो मुझे यह दो मुठ्ठी गेहूं वापस करना है।जो शिष्य मुझे अपने गेहूं सुरक्षित वापस कर देगा, मैं उसे ही इस गुरुकुल का गुरु नियुक्त करूंगा। दोनों शिष्यों ने गुरु की आज्ञा को शिरोधार्य रखा और गुरु को विदा किया।

उन दोनों शिष्यों में से एक गुरु को भगवान मानता था। उसने तो गुरु के दिए हुए एक मुट्ठी गेहूं की पोटली बांध कर एक आलिए में सुरक्षित रख दिए और रोज उसकी पूजा करने लगा। दूसरा शिष्य जो गुरु को ज्ञान का देवता मानता था, उसने उन एक मुट्ठी गेहूं को ले जाकर गुरुकुल के पीछे खेत में बो दिए।

कुछ महीनों बाद गुरु वापस आश्रम आए। उन्होंने अपने शिष्य जो उन्हें भगवान मानता था, उससे अपने एक मुट्ठी गेहूं वापस मांगे। उस शिष्य ने गुरु को ले जाकर आलिए में रखी गेहूं की पोटली दिखाई, जिसकी वह रोज पूजा करता था। गुरु ने देखा कि उस पोटली के गेहूं सड़ चुके हैं और अब वे किसी काम के नहीं रहे।फिर गुरु ने दूसरे शिष्य को जो गुरु को ज्ञान का देवता मानता था, उससे अपने गेहूं दिखाने के लिए कहा। दूसरे शिष्य ने गुरु को आश्रम के पीछे ले जाकर कहा - गुरुदेव! यह लहलहाती जो फसल देख रहे हैं यही आपके एक मुट्ठी गेहूं हैं। आप मुझे क्षमा करें कि जो गेहूं आप दे गए थे, वही गेहूं मैं वापस दे नहीं सकता।गुरु उसके द्वारा बोए गए गेहूं की लहलहाती फसल देखकर प्रसन्न चित्त हो गए। उन्होंने कहा- जो शिष्य गुरु के ज्ञान को फैलाता है, बांटता है, वही गुरु का श्रेष्ठ उत्तराधिकारी होने का पात्र है। वास्तव में गुरु के प्रति सच्ची दक्षिणा यही है।

गुरु ने कहा - गुरुदक्षिणा का सामान्य अर्थ में पारितोषिक के रूप में लिया जाता है, किंतु गुरुदक्षिणा का वास्तविक अर्थ कहीं ज्यादा व्यापक है। महज पारितोषिक नहीं। गुरुदक्षिणा का अर्थ है कि गुरु से प्राप्त की गई शिक्षा एवं ज्ञान का प्रचार-प्रसार व उसका सही उपयोग कर जनकल्याण में लगाएं। गुरु ने अपने दूसरे शिष्य से प्रभावित होकर उसे आश्रम का उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया।

इस कहानी का तात्पर्य यह ‍है कि जैसे सूर्य बिना कहे सबको प्राण ऊर्जा देता है, मेघ जल बरसाता है, हवा भी बिना किसी भेदभाव व लालच के ठंडक पहुंचा कर सभी को जीवित रखती है और फूल भी अपनी महक में कोई कसर नहीं रखता, वैसे ही गुरुजन भी स्वयं ही शिष्यों की भलाई में लगे रहते हैं।

 

Saturday, November 18, 2017

विजय मन्त्र

एक बार बाबा फरीद कहीं जा रहे थे। एक व्यक्ति उनके साथ चलने लगा। उसकी जिज्ञासा ने उसे बाबा के साथ कर दिया था। व्यक्ति ने बाबा से पूछा , ' क्रोध को कैसे जीतें , काम को कैसे जीतें ?'

ऐसे प्रश्न लोग बाबा से पूछते रहते थे। बाबा ने बड़े स्नेह से उस व्यक्ति का हाथ पकड़ा और बोले , ' तुम थक गए होगे। चलो किसी पेड़ की छाया में विश्राम करते है। ' बाबा बोले , ' बेटा ! समस्या क्रोध और काम को जीतने की नही , उन्हें जानने की है। वास्तव में न हम क्रोध को जानते है और न काम को। हमारा यह अज्ञानहै कि हमें बार - बार हराता है। इन्हें जान लो तो समझो जीत पक्की है। जब हमारे अंदर क्रोध प्रबल होता है , काम प्रबल होता है , तब हम नहीं होते हैं। हमें होश ही नहीं होता है। इस बेहोशी में जो कुछ होता है , वह मशीनी यंत्र की भांति हम किया करते हैं। बाद में केवल पछतावा बचता है। बात तो तब बने , जब हम फिर से सोयें नहीं। अंधेरे में पड़ी रस्सी सांप जैसी नजर आती है। इसे देख कर कुछ तो भागते हैं , कुछ उससे लड़ने की ठान लेते हैं। लेकिन गलती दोनों ही करते है। ठीक तरह से देखने पर पता चलता है कि वहां सांप तो है ही नहीं। बस जानने की बात है। इस तरह इंसान को अपने को जानना होता है। अपने में जो भी है , उससे ठीक से परिचित भर होना है। बस , फिर तो बिना लड़े ही जीत हासिल हो जाती है। '

उस व्यक्ति को अपने सवाल का जवाब मिल गया।

गीता का सच्चा पाठ

एक समय की बात है।चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथपुरी से दक्षिण की यात्रा पर निकले थे | रास्ते में एक सरोवर के किनारे पर एक ब्राह्मण को गीता पाठ करते देखा | वह गीता पाठ में इतना तल्लीन था की उसे अपने शरीर की भी सुध नहीं थी | उसका हृदय गदगद हो रहा था और नेत्रों से आंसुओं की धारा बह रही थी| पाठ समाप्त होने पर चैतन्य ने पूछा, " तुम तो श्लोकों का अशुद्ध उच्चारण कर रहे थे, तुम्हे इनका अर्थ कहाँ मालूम होगा?" उसने उत्तर दिया, "भगवन! मैं कहाँ जानूं संस्कृत? मैं तो जब पढने बैठता हूँ तो ऐसा लगता है की कुरुक्षेत्र के मैदान में दोनों ओर बड़ी भारी सेनायें सजी हुयी खड़ी हैं | जहां बीच में एक रथ पर भगवान् कृष्ण अर्जुन से कुछ कह रहे हैं | उन्हें देख कर रुलाई आ रही है |" चैतन्य महाप्रभु ने उसकी ऐसी निर्मल अत्यंत प्रेमपूर्ण भावना देख कहा," भैया ! तुम्ही ने गीता का सच्चा अर्थ जाना है |" और उन्होंने उसे अपने गले लगा लिया...

विद्या का अहम

एक समय की बात है ।एक पढ़ा-लिखा दंभी व्यक्ति नाव में सवार हुआ। वह घमंड से भरकर नाविक से पूछने लगा, ‘‘क्या तुमने व्याकरण पढ़ा है, नाविक?’’ नाविक बोला, ‘‘नहीं।’’ दंभी व्यक्ति ने कहा, ‘‘अफसोस है कि तुमने अपनी आधी उम्र यों ही गँवा दी!’’ थोड़ी देर में उसने फिर नाविक से पूछा, “तुमने इतिहास व भूगोल पढ़ा?” नाविक ने फिर सिर हिलाते हुए ‘नहीं’ कहा। दंभी ने कहा, “फिर तो तुम्हारा पूरा जीवन ही बेकार गया।“ मांझी को बड़ा क्रोध आया। लेकिन उस समय वह कुछ नहीं बोला। दैवयोग से वायु के प्रचंड झोंकों ने नाव को भंवर में डाल दिया। नाविक ने ऊंचे स्वर में उस व्यक्ति से पूछा, ‘‘महाराज, आपको तैरना भी आता है कि नहीं?’’ सवारी ने कहा, ‘‘नहीं, मुझे तैरना नही आता।’’

“फिर तो आपको अपने इतिहास, भूगोल को सहायता के लिए बुलाना होगा वरना आपकी सारी उम्र बरबाद होने वाली है क्योंकि नाव अब भंवर में डूबने वाली है।’’ यह कहकर नाविक नदी में कूद तैरता हुआ किनारे की ओर बढ़ गया।

अतः मनुष्य को किसी एक विद्या या कला में दक्ष हो जाने पर गर्व नहीं करना चाहिए।

Friday, November 17, 2017

गुरु परीक्षा

एक समय की बात है  गुरु नानकदेव जी घोड़े पर बैठकर कहीं से करतारपुर लौट रहे थे ! भाई लह्णा जी ,गुरु पुत्र बाबा श्री चन्द जी बाबा लखमीचन्द जी और साधसंगत संग चल रही थी ;रास्ते में कीचड़ से भरा एक गन्दा नाला आया ! गुरु नानकदेव जी के पास एक कटोरा था ;उन्होंने वह कटोरा पुल पार करते समय उस गन्दे नाले में फेंक दिया !सबको ऐसा प्रतीत हुआ मानो वह कटोरा उनसेे छिटक कर गन्दे नाले में जा गिरा है ! नानक साहब ने हुक्म किया कि कोई सिख जा कर वह कटोरा इस नाले से निकाल आओ !कोई आगे नही बढ़ा ;गुरु नानकदेव जी ने अपने पुत्र बाबा श्री चन्द जी को कटोरा निकालने को कहा !बाबा श्री चन्द जी ने उत्तर दिया -पिता जी आप जैसे दिव्यात्मा को कटोरे से इतना मोह नही करना चाहिये आप चाहें तो आपको नया कटोरा ले देते है !बाबा लखमी चन्द जी के भी यही विचार थे ;एक साधारण से कटोरे की खातिर एक गंद से भरे नाले में कूदना सब को बेवकूफी लग रही थी ! लेकिन यह कटोरा मुझे अतिप्रिय है इतना कह कर गुरु नानकदेव जी ने भाई लह्णा जी की तरफ देखा !मेरे गुरु को अतिप्रिय..बस इतना सुना ;अगले ही पल भाई लह्णा उस कीचड़ से भरे नाले में कूद गये और गुरु नानकदेव जी का प्रिय कटोरा ढूंढने लगे ! कुछ देर के बाद भाई लह्णा जी को कटोरा मिल गया ;उसे अच्छी तरह मांज धो कर साफ़ करके गुरु चरणों में पेश कर दिया !गुरु नानक साहब ने पूछा -भाई लहणे जब कोई इस कीचड़ में उतरने को तैयार नही था तो तू क्यो कूदा ?

भाई लहणे जी ने हाथ जोड़ कर कहा -दाता मैं सिर्फ इतना जानता हूँ मेरा गुरु नानक जिस से प्रेम करता है उसको कभी पापो से भरे कीचड़ में फँसा नही रहने देता !वह अपनी कुदरत को हुक्म दे कर उस प्रिय वस्तु को उस नरक से निकाल कर उसे अपने लायक बनाकर उसे अंगीकार करते हैं !दाता मैंने कुछ नही किया ;जो कुछ करवाया है आप ने करवाया है ! ऐसे विचार सुनकर गुरु नानक साहब ने भाई लहणे को अपने हृदय से लगा लिया और बोले -भाई लह्णा कोई मन में आस है तां बोल !भाई लहणे ने कहा -हे दातार इस कटोरे की तरह मुझे भी आपका इतना प्यार मिले कि विकारो से भरा मैं पापी आपके अंगीकार हो सकूँ !

गुरु नानक साहब बोले -भाई लह्णा आप मुझे अतिप्रिय हो !आप अपने आप को पाप और विकार से भरा कहते हो ;आप तो सेवा सिमरन की ऐसी गंगा हो जिसमे पाप और विकार कभी ठहर ही नही सकता !कालांतर मे यही भाई लह्णा जी सतगुरु सेवा और सिमरन के प्रतीक धन्न गुरु अंगद साहब जी महाराज के नाम से प्रख्यात हुए 

चोर से सीख

एक समय की बात है.एक फकीर था। उसने कहा कि ‘मैंने आज तक जिनके पास भी गया, सबसे सीखा।’ किसी ने पूछा, ‘यह कैसे हो सकता है? एक चोर से क्या सीखिएगा?’ उसने कहा, ‘एक बार ऐसा हुआ, हम एक चोर के घर में मेहमान थे। और ऐसा हुआ कि उस चोर के घर हम एक महीना मेहमान थे। वह रोज रात को चोरी करने निकलता और तीन बजे, चार बजे वापस लौटता। हम उससे पूछते, कहो कुछ हुआ? वह हंसकर कहता, आज तो कुछ नहीं हुआ, शायद कल हो। एक महीना वह चोरी नहीं कर पाया। कभी दरवाजे पर सैनिक मिल गया, कभी लोग घर में जगे थे, कभी ताला नहीं तोड़ पाया, कभी भीतर भी घुसा, खजाने तक नहीं पहुंच पाया। और वह चोर रोज रात को थका हुआ लौटता और हम उससे पूछते कि कहो, कुछ हुआ?वह कहता, आज तो नहीं हुआ, लेकिन कल शायद हो। हमने उससे यह सीख लिया। हमने सीख लिया कि जब आज न हो, तो फिक्र मत करना। याद रखना कि कल हो सकता है।’ ‘और एक चोर जो चोरी करने गया है,  वह भी इतनी आशा से भरा है।

फकीर ने कहा,‘उन दिनों हम परमात्मा की तलाश में थे,हम परमात्मा की चोरी में लगे थे। हम भी वहां दीवालें खटखटा रहे थे और दरवाजे टटोल रहे थे, कोई रास्ता नहीं मिलता था। हम थक गए थे और निराश हो गए थे और हमने सोचा था, फिजूल है सब, छोड़ें। लेकिन उस चोर ने हमको बचा लिया। और उसने कहा, आज नहीं हुआ, कल शायद होगा। और हमने यह सूत्र बना लिया कि आज नहीं होगा, तो कल शायद होगा।

और फिर वह दिन आया कि बात घटित हुई। चोर ने चोरी कर ली और हमने भी परमात्मा चुरा लिया।’ तो सवाल यह नहीं है कि आप सदपुरुष से ही सीखेंगे। सवाल यह है कि सीखने की बुद्धि और समझ हो, तो इस सारे जगत में सदपुरुष भरे हुए हैं।

शिष्य का गुरु

एक समय की बात है । अकबर ने तानसेन से कहा था कि तेरा वीणावादन देखकर कभी—कभी यह मेरे मन में खयाल उठता है कि कभी संसार में किसी आदमी ने तुझसे भी बेहतर बजाया होगा या कभी कोई बजाएगा? मैं तो कल्पना भी नहीं कर पाता कि इससे श्रेष्ठतर कुछ हो सकता है। तानसेन ने कहा, क्षमा करें, शायद आपको पता नहीं कि मेरे गुरु अभी जिन्दा हैं। और एक बार अगर आप उनकी वीणा सुन लें तो कहां वे और कहां मैं !!!

बड़ी जिज्ञासा जगी अकबर को। अकबर ने कहा तो फिर उन्हें बुलाओ! तानसेन ने कहा " इसीलिए कभी मैंने उनकी बात नही छेड़ी। आप मेरी सदा प्रशंसा करते थे, मैं चुपचाप पी लेता था, जैसे जहर का घूंट कोई पीता है, क्योंकि मेरे गुरु अभी जिन्दा हैं, उनके सामने मेरी क्या प्रशंसा! यह यूं ही है जैसे कोई सूरज को दीपक दिखाये। मगर मैं चुपचाप रह जाता था, कुछ कहता न था, आज न रोक सका अपने को, बात निकल गयी। लेकिन नहीं कहता था इसीलिए कि आप तत्‍क्षण कहेंगे, ‘उन्हें बुलाओ’। और तब मैं मुश्किल में पढूंगा, क्योंकि वे यूं आते नहीं। उनकी मौज हो तो जंगल में बजाते हैं, जहां कोई सुननेवाला नहीं। "तो अकबर ने कहा, फिर क्या करना पड़े, कैसे सुनना पड़े? तो तानसेन ने कहा, "एक ही उपाय है कि यह मैं जानता हूं कि रात तीन बजे वे उठते हैं, यमुना के तट पर आगरा में रहते हैं—हरिदास उनका नाम था—हम रात चलकर छुप जाएं—दो बजे रात चलना होगा; क्योंकि कभी तीन बजे बजाए, चार बजे —बजाए, पांच बजे बजाए; मगर एक बार जरूर सुबह—सुबह स्नान के बाद वे वीणा बजाते हैं— तो हमें चोरी से ही सुनना होगा, बाहर झोपड़े के छिपे रहकर सुनना होगा। " शायद ही दुनिया के इतिहास में किसी सम्राट ने, अकबर जैसे बड़े सम्राट ने चोरी से किसी की वीणा सुनी हो !!.लेकिन अकबर गया।

दोनों छिपे रहे एक झाड़ की ओट में, पास ही झोपड़े के पीछे। कोई तीन बजे स्नान करके हरिदास यमुना सै आये और उन्होंने अपनी वीणा उठायी और बजायी। कोई घंटा कब बीत गया—यूं जैसे पल बीत जाए! वीणा तो बंद हो गयी, लेकिन जो राग भीतर अकबर के जम गया था वह जमा ही रहा। आधा घंटे बाद तानसेन ने उन्हें हिलाया और कहा कि अब सुबह होने के करीब है, हम चलें! अब कब तक बैठे रहेंगे। अब तो वीणा बंद भी हो चुकी। अकबर ने कहा, बाहर की तो वीणा बंद हो गयी मगर भीतर की वीणा बजी ही चली जाती है। तुम्हें मैंने बहुत बार सुना, तुम जब बंद करते हो तभी बंद हो जाती है। यह पहला मौका है कि जैसे मेरे भीतर के तार छिड़ गये हैं।। और आज सच में ही मैं तुमसे कहता हूं कि तुम ठीक ही कहते थे कि कहा तुम और कहां तुम्हारे गुरु!!

अकबर की आंखों से आंसू झरे जा रहे हैं। उसने कहा, मैंने बहुत संगीत सुना, इतना भेद क्यों है? और तेरे संगीत में और तेरे गुरु के संगीत में इतना भेद क्यों है? जमीन— आसमान का फर्क है। तानसेन ने कहा, "कुछ बात कठिन नहीं है। मैं बजाता हूं कुछ पाने के लिए; और वे बजाते हैं क्योंकि उन्होंने कुछ पा लिया है। उनका बजाना किसी उपलब्धि की, किसी अनुभूति की अभिव्यक्ति है। मेरा बजाना तकनीकी है। मैं बजाना जानता हूं मैं बजाने का पूरा गणित जानता हूं मगर गणित!!! बजाने का अध्यात्म मेरे पास नहीं! और मैं जब बजाता होता हूं तब भी इस आशा में कि आज क्या आप देंगे? हीरे का हार भेंट करेंगे, कि मोतियों की माला, कि मेरी झोली सोने से भर देंगे, कि अशार्फेयों से? जब बजाता हूं तब पूरी नजर भविष्य पर अटकी रहती है, फल पर लगी रहती है। वे बजा रहे हैं, न कोई फल है, न कोई भविष्य, वर्तमान का क्षण ही सब कुछ है।  उनका बजाना आनंद है, साधन नहीं। वे मस्ती में हैं।

Thursday, November 16, 2017

चार लड्डू

एक समय की बात है ।बहुत समय पहले की बात है वृन्दावन में श्रीबांके बिहारी जी के मंदिर में रोज पुजारी जी बड़े भाव से सेवा करते थे। वे रोज बिहारी जी की आरती करते , भोग लगाते और उन्हें शयन कराते और रोज चार लड्डू भगवान के बिस्तर के पास रख देते थे। उनका यह भाव था कि बिहारी जी को यदि रात में भूख लगेगी तो वे उठ कर खा लेंगे। और जब वे सुबह मंदिर के पट खोलते थे तो भगवान के बिस्तर पर प्रसाद बिखरा मिलता था। इसी भाव से वे रोज ऐसा करते थे।एक दिन बिहारी जी को शयन कराने के बाद वे चार लड्डू रखना भूल गए। उन्होंने पट बंद किए और चले गए। रात में करीब एक-दो बजे , जिस दुकान से वे बूंदी के लड्डू आते थे , उन बाबा की दुकान खुली थी। वे घर जाने ही वाले थे तभी एक छोटा सा बालक आया और बोला बाबा मुझे बूंदी के लड्डू चाहिए।बाबा ने कहा - लाला लड्डू तो सारे ख़त्म हो गए। अब तो मैं दुकान बंद करने जा रहा हूँ। वह बोला आप अंदर जाकर देखो आपके पास चार लड्डू रखे हैं। उसके हठ करने पर बाबा ने अंदर जाकर देखा तो उन्हें चार लड्डू मिल गए क्यों कि वे आज मंदिर नहीं गए थे। बाबा ने कहा - पैसे दो। बालक ने कहा - मेरे पास पैसे तो नहीं हैं और तुरंत अपने हाथ से सोने का कंगन उतारा और बाबा को देने लगे। तो बाबा ने कहा - लाला पैसे नहीं हैं तो रहने दो , कल अपने बाबा से कह देना , मैं उनसे ले लूँगा। पर वह बालक नहीं माना और कंगन दुकान में फैंक कर भाग गया। सुबह जब पुजारी जी ने पट खोला तो उन्होंने देखा कि बिहारी जी के हाथ में कंगन नहीं है। यदि चोर भी चुराता तो केवल कंगन ही क्यों चुराता। थोड़ी देर बाद ये बात सारे मंदिर में फ़ैल गई।।जब उस दुकान वाले को पता चला तो उसे रात की बात याद आई। उसने अपनी दुकान में कंगन ढूंढा और पुजारी जी को दिखाया और सारी बात सुनाई। तब पुजारी जी को याद आया कि रात में , मैं लड्डू रखना ही भूल गया था। इसलिए बिहारी जी स्वयं लड्डू लेने गए थे।यदि भक्ति में भक्त कोई सेवा भूल भी जाता है तो भगवान अपनी तरफ से पूरा कर लेते हैं।

हिसाब किताब

एक समय की बात है. किसी गांव में एक कुटिया में एक साधु रहते थे। सीधा-सादा जीवन, ईश्‍वर का नाम लेने और माला फेरने में उनका पूरा दिन बीत जाता। उन्हें मोक्ष प्राप्त करने की प्रबल आकांक्षा थी। जितनी बार ईश्‍वर का ध्यान करते या जितनी बार वह अपनी माला फेरते, कॉपी में लिख लेते। एक दिन साधु की कुटिया के ठीक सामने एक ग्वालिन ने दुकान लगा ली। हर दिन सुबह के वक्‍त वह बाल्टी भरकर गाय का दूध लाती। ग्राहकों से दूध का मूल्‍य लेती और तौल कर बर्तन में दूध डाल देती। कोई ग्राहक यदि मोलभाव करने की कोशिश करता, तो वह उसे तीखे स्वर में तुरंत चलता कर देती। मजाल कि कोई उससे छटांक भर भी अधिक दूध ले पाता।

लेकिन उसके पास रोजाना ही एक बच्चा आता। बच्चे के पास कभी पैसे होते, कभी नहीं। पर न तो ग्वालिन उससे कोई सवाल पूछती, न पैसे गिनती। उसका बर्तन दूध से भर देती। यह देख साधु सोच में पड़ जाते। वह कड़क ग्वालिन उस बच्चे के साथ क्यों इतनी कोमल थी, इस जिज्ञासा ने उन्हें परेशान कर डाला। इतना कि माला फेरने में भी उनका ध्यान न लगता।

काफी दिनों तक सोचने के बाद आखिरकार एक दिन उनसे रहा न गया। वह उस ग्वालिन के पास गए और बोले, ‘बहन, उस बच्चे में ऐसा क्या है कि आप रोजाना ही उसका बर्तन दूध से भर देती हैं, जबकि दूसरों के साथ आप इतना कड़ा रूख रखती हैं।’ ग्वालिन साधु को देख मुस्कराई, बोली, ‘आप इतना भी नहीं समझे महाराज/ प्रेम से भारी भला क्या वस्तु है! क्या आपने बच्चे की आंखों में कभी झांक कर देखा है/ उनमें उसका सच्चा प्रेम झलकता है, फिर उससे भला कैसा सौदा।’

यह सुन साधु हक्का-बक्का रह गए। उनके हाथ से माला गिर गई। वर्षों से जिस ज्ञान की उन्हें तलाश थी, अचानक ही उस सीधी-सादी ग्वालिन ने उन्हें बिना मांगे दे दिया। पूजा-पाठ, माला फेरना, जप सभी की व्यर्थता सामने खुल गई। लगा जैसे यह सब ईश्‍वर से सौदा करने जैसा था। वह जान गए कि सच्ची पूजा तो सच्चे प्रेम में ही छुपी है। सच्ची प्रार्थना वही है, जो सच्चे प्रेम के साथ की जाए। 

Wednesday, November 15, 2017

प्रेम की परिभाषा

एक समय की बात है. एक सूफी नमाज पढ़ रहा था और एक औरत भागी हुई निकली, उसको धक्का देती हुई, उसके कपड़े पर पैर डालती हुई। वह बड़ा नाराज हुआ! बड़ा नाराज हुआ, लेकिन नमाज में था तो बोल नहीं सका। जल्दी उसने नमाज पूरी की कि और मन में सोचा इसका पीछा करें, कैसी बदतमीज औरत, इतना भी ध्यान नहीं!लेकिन जब वह नमाज करके उठा तो वह औरत वापिस आ रही थी। तो उसने उसे पकड़ा। उसने कहा कि " सुन बदतमीज औरत! तुझे इतना भी पता नहीं कि कोई ध्यान कर रहा है, नमाज कर रहा है, प्रार्थना कर रहा है?तो इस तरह, इस तरह सलूक करना चाहिए कि तू मुझे धक्का देती, मेरे कपड़े पर पैर रखती निकल गई? "उसने कहा. "क्षमा करें, मुझे याद भी नहीं। और मैंने देखा भी नहीं। मैं अपने प्रेमी से मिलने जाती थी।मुझे याद भी नहीं कि आप कहां बैठे थे, कहा नमाज पढ़ रहे थे, कौन नमाज पढ़ रहा था, कौन नहीं पढ़ रहा था, मुझे याद नहीं।  क्षमा करें! लेकिन एक बात आपसे पूछती हूं : मैं अपने प्रेमी से मिलने जाती थी।क्षणभंगुर प्रेमी, पर आप तो अपने परम परमात्मा प्रेमी से मिलने गए थे ? आपको, मेरे पैर आपके कपड़े पर पड़ गए, मेरा धक्का लगा, वह आपको पता भी चल गया।किसने मारा वह भी...आपको समझ में आ गया !आप क्या परमात्मा से मिल रहे थे? तब तो मेरी प्रार्थना आपसे बेहतर है। माना कि मैं किसी के शरीर के मोह में पड़ी हूं और यह मोह ठीक नहीं, लेकिन कम से कम है तो! और माना कि तुम परमात्मा के मोह में पड़े हो, मगर है कहां? "

कहते हैं, उस सूफी के जीवन में क्रांति हो गई इस बात से।उसने कहा, अब नमाज तभी पड़ेंगे जब प्रेम होगा, अन्यथा क्या सार है?व्रत से नहीं—बोध से। व्रत से नहीं—प्रेम से। व्रत से नहीं, नियम से नहीं, किसी बाहरी अनुशासन से नहीं—अंतरभाव से!

Monday, November 13, 2017

गरीब आदमी

 एक समय की बात है . एक बहुत अरबपति महिला ने एक गरीब चित्रकार से अपना चित्र बनवाया,या । चित्र बन गया, तो वह अमीर महिला अपना चित्र लेने आयी। वह बहुत खुश थी। चित्रकार से उसने कहा, कि क्या उसका पुरस्कार दूं? चित्रकार गरीब आदमी था। गरीब आदमी लालच करे तो कितनी बड़ी करे, मांगे भी तो कितना मांगे? उसने सोचा मन में कि सौ डालर मांगूं, दो सौ डालर मांगूं, पांच सौ डालर मांगूं। फिर उसकी हिम्मत डिगने लगी। इतना देगी, नहीं देगी! फिर उसने सोचा कि बेहतर यह हो कि इसी पर छोड़ दूं, शायद ज्यादा दे। डर तो लगा मन में कि इस पर छोड़ दूं, पता नहीं दे या न दे, या कहीं कम दे और एक दफा छोड़ दिया तो फिर! तो उसने फिर भी हिम्मत की। उसने कहा कि आपकी जो मर्जी। तो उसके हाथ में जो उसका बैग था, पर्स था, उसने कहा,तो अच्छा तो यह पर्स तुम रख लो। यह बडा कीमती पर्स है। पर्स तो कीमती था, लेकिन चित्रकार की छाती बैठ गयी कि पर्स को रखकर करूंगा भी क्या? माना कि कीमती है और सुंदर है, पर इससे कुछ आता-जाता नहीं। इससे तो बेहतर था कुछ सौ डालर ही मांग लेते। तो उसने कहा, नहीं-नहीं, मैं पर्स का क्या करूंगा, आप कोई सौ डालर दे दें। उस महिला ने कहा, तुम्हारी मर्जी। उसने पर्स खोला, उसमें एक लाख डालर थे, उसने सौ डालर निकाल कर चित्रकार को दे दिये और पर्स लेकर वह चली गयी।  आदमी करीब-करीब इस हालत में है। परमात्मा ने जो दिया है, वह बंद है, छिपा है। और हम मांगे जा रहे हैं–दो-दो पैसे, दो-दो कौड़ी की बात। और वह जीवन की जो संपदा उसने हमें दी है, उस पर्स को हमने खोल कर भी नहीं देखा है। जो मिला है, वह जो आप मांग सकते हैं, उससे अनंत गुना ज्यादा है। लेकिन मांग से फुरसत हो, तो दिखायी पड़े, वह जो मिला है। भिखारी अपने घर आये, तो पता चले कि घर में क्या छिपा है। वह अपना भिक्षापात्र लिये बाजार में ही खड़ा है! वह घर धीरे-धीरे भूल ही जाता है, भिक्षा-पात्र ही हाथ में रह जाता है। इस भिक्षापात्र को लिये हुए भटकते-भटकते जन्मों-जन्मों में भी कुछ मिला नहीं। न ही कुछ मिलेगा