रास रचानेवाले श्रीकृष्ण आजीवन ब्रह्मचारी और व्यंजनोंको ग्रहण करनेवाले ऋषि दुर्वासा नित्य उपवासी कैसे ?रास रचानेवाले श्रीकृष्ण और व्यंजनोंको ग्रहण करनेवाले ऋषि दुर्वासा अनासक्त होनेके कारण कर्म करते हुए भी कर्मफलसे मुक्त थे ! यही साधनाका महत्त्व है !
Katha Sagar
Tuesday, April 23, 2019
अनासक्ति
रास रचानेवाले श्रीकृष्ण आजीवन ब्रह्मचारी और व्यंजनोंको ग्रहण करनेवाले ऋषि दुर्वासा नित्य उपवासी कैसे ?रास रचानेवाले श्रीकृष्ण और व्यंजनोंको ग्रहण करनेवाले ऋषि दुर्वासा अनासक्त होनेके कारण कर्म करते हुए भी कर्मफलसे मुक्त थे ! यही साधनाका महत्त्व है !
Tuesday, October 23, 2018
चंदा का चकोर
रात काफ़ी गहरा गई थी. आसमान में चाँद की आभा धीरे-धीरे निखर रही थी. एक चकोर अपने घोंसले में ख़ामोशी के साथ बैठा हुआ था. उसकी नज़र आसमान से झांकते चाँद पर पड़ रही थी. लेकिन सामने वाली छत पर मौजूद पानी की टंकी चकोर को चाँद के दीदार करने से रोक रही थी. कई दिनों से बीमार चकोर के पूरे शरीर में भयानक पीड़ा हो रही थी. लेकिन उसके मन में चाँद को निहारने और छूने की चाहत उमड़ रही थी. चाँद धीरे-धीरे आसमान में ऊपर उठ रहा था. पानी की टंकी नीचे छूट रही थी. उधर चकोर की चाँद को पाने और उसके साथ एकाकार हो जाने की तमन्ना अपने चरम पर पहुंच रही थी.
समय बीतने के साथ धुंधला और पीला चाँद काफ़ी चमकीला हो रहा था. चकोर के लिए आज की रात ख़ास और बाकी रातों से अलग थी. चकोर चाँद की सुंदरता में खोता जा रहा था. आज चकोर का अपने दिलों की धडक़नों पर कोई ज़ोर नहीं था. उसके मन में चाँद के प्रति उमड़ती चाहतों के समंदर के अलावा कोई शोर नहीं था.
दिल में चाँद को पाने की हसरतों के साथ चकोर ने अंततः अपने घोसले से उड़ान भरी. उसके प्रेम के आगे उसका दर्द पराजित होकर रह गया था. चारो तरफ़ चांदनी रात का जादू बिखर रहा था. चकोर की आँखों में तो बस चाँद की ही मूरत छबि बसी हुई थी. उसके मन में चांद को पाने के सिवा कोई हसरत नहीं थी. लेकिन काफ़ी ऊंचाई तक पहुंचने के बाद भी चाँद, चकोर की पहुंच से बहुत दूर था.
चकोर उड़ते-उड़ते बहुत थक गया था. लेकिन वह सारी हिम्मत जुटाकर पहाड़ों की तरफ़ आगे बढ़ रहा था. अब चाँद और चमकीला हो चला था. चारो ओर चांदनी रात का जादू अपने सबाब पर था. लेकिन उसकी हिम्मत अब जबाब दे रही थी. पहाड़ों के इस तरफ़ वाली नदी को पार करते -करते वह बीच में ही लड़खड़ा कर गिरने लगा. उसे लगा कि चाँद को छूने अभिलाषा का उसके जीवन के साथ ही अब अंत हो जाएगा.
अचानक उसकी नजर नदी में उसी आभा से चमकते और पहले से भी ज्यादा जीवंत लग रहे चांद पर पड़ी. ख़ुशी और उमंग के भाव से उसकी आंखें बंद हो गईं थीं. लेकिन पानी में चांद की परछाई पर गिरने के बाद वह फूलों की हिफाजत के लिए बने कंटीली बाड़ में फंस गया. यहाँ उसके मन में एक तरफ चांद को छू लेने की खुशी थी तो दूसरी तरफ कांटों में बिंधे होने का असीम दर्द.
इसी तडप और खुशी के भाव के साथ चकोर की चाँद को पाने वाली उड़ान हमेशा के लिए ठहर गई थी. चांद की दूधिया रोशनी में नदी में खून के लाल कतरे तैर रहे थे. ऐसा लग रहा था जैसे चांद अपने चाहने वाले का यह अंजाम देखकर खून के आंसू रोया हो और इन आंसुओं से भीगा उसका चेहरा काला पड़ गया हो. चांद की तडफ़ और छटपटाहट से उसका चेहरा कांतिहीन हो गया था.
आज की रात बड़ी लंबी थी. आखिर किसी के परीक्षा की घड़ी जो थी. उस रात किसी प्रेमी की जिंदगी और मोहब्बत के बीच जंग का फैसला होना था. एक प्रेमी चकोर की जिंदगी चाँद की मोहब्बत में कुर्बान हो गई थी. रात ढल चुकी थी. एक तरफ़ आसमान में सूरज की लालिमा झांक रही थी. दूसरी तरफ़ चकोर की मौत के ग़म में मुरझाया चांद अब भी आसमान से मौजूद था. नदी के किनारे पर लगे उन कटीले तारों से आज़ाद होने की कोशिश में उलझा चकोर मृत पड़ा था.
Monday, October 22, 2018
प्रेम की परीक्षा
Monday, October 15, 2018
सुनने की कला
Saturday, August 25, 2018
यात्रा
लक्ष्मणजी बोले -- उस समय नहीं था।-- तब ?
लक्ष्मणजी ने कहा -- प्रभो ! मेघनाथ के बाण चलाने पर जब मैं मूर्छित हो गया था, उस समय जो यात्रा हुई, उतनी बढ़िया यात्रा कभी नहीं हुई। प्रभु ने कहा -- तुम तो मूर्छित हो गए थे, फिर यात्रा कैसे हुई ? लक्ष्मणजी बोले -- यही तो आश्चर्य है ; चलकर तो व्यक्ति आप तक पहुँचने की चेष्टा करता है और पहुँचता भी है, परन्तु जब मैं मूर्छित हो गया था और हनुमानजी ने मुझे अपनी गोद में उठाकर आपकी गोद में दे दिया, तो मुझे तो एक पग भी नहीं चलना पड़ा और मैं सन्त की गोद के माध्यम से भगवन्त की गोद में पहुँच गया।
परिचय
महाराज ,जीव भले ही आपको भूल जाए ,पर आप भला जीव को कैसे भूल सकते हैं ? मैंने तो जीव के स्वभाववश आपसे आपका परिचय पूछा, जीव विस्मृतशील है, वह भूल जाता है, पर आप तो सर्वज्ञ हैं और सर्वज्ञ होने के नाते क्या आपको पता नहीं कि मैं कौन हूँ ? आप कब से भूलने लगे ? भगवान राम ने सफाई दी -- नहीं, नहीं, भूला नहीं हूँ
इसके उत्तर में हनुमानजी ने जो कहा, उसे परिचय नहीं कहा जा सकता, क्योंकि परिचय तो तब होता है जब हनुमानजी अपने जन्म की चरित्र की कथा सुनाते और कहते कि मैं पवन और अंजना का या कि केशरी और अंजना का पुत्र हूँ, पर वे तो कहते हैं --
- मैं मन्द हूँ, मोह के वश में हूँ, कुटिल हृदय वाला हूँ, अज्ञानी हूँ। इस पर भगवान् ने हँसकर हनुमानजी की ओर देखा, मानो यह पूछ रहे हों -- यह कथा सुना रहे हो या व्यथा ? हनुमानजी बोले --महाराज, मैं यही तो कहना चाहता था कि कथा तो केवल आपकी ही है, जीव की तो व्यथा ही व्यथा है। जीव अपनी व्यथा और समस्या ही आपके सामने रख सकता है। हनुमानजी की आकुल वाणी सुनकर भगवान उन्हें हृदय से लगा लेते हैं और उनका नाम लेते हुए कहते हैं -- मैं तुम्हें भूला नहीं हूँ ; यदि मैं भूला होता तो तुम्हारे न बताने पर भी तुम्हारा नाम मुझे कैसे ध्यान में रहता ?
प्रशंसा का रोग
" वह क्या ?"
" यह कि दोष तो आप देख ही नहीं पाते। इसलिए मेरे दोष आपको दिखाई नहीं देते हैं तो वह ठीक ही है।"
भगवान् ने पूछा," अच्छा, दोष देखना यदि मुझे नहीं आता तो गुण देखना तो आता है ?"
भरत जी बोले, "महाराज, गुण देखना आपको आता तो है, पर मैं आपसे पूछता हूँ यदि तोता बहुत बढ़िया श्लोक पढ़ने लगे और बन्दर बहुत बढ़िया नाचने लगे तो यह बन्दर या तोते की विशेषता है अथवा पढ़ाने और नचाने वाले की ?"
भगवान ने कहा," पढ़ाने और नचाने वाले की।
" महाराज, बिल्कुल ठीक कहा आपने। मैं तो तोते और बन्दर की तरह हूँ। यदि मुझमें कोई विशेषता दिखाई देती है तो पढ़ाने और नचाने वाले तो आप ही हैं। इसलिए यह प्रशंसा आपको ही अर्पित है।"
भगवान ने भरत से कहा, "भरत, तो प्रशंसा तुमने लौटा दी ?"
भरत जी बोले," प्रभु, प्रशंसा का कुपथ्य सबमें अजीर्ण पैदा कर देता है, सबको डमरुआ रोग से ग्रस्त कर देता है। लेकिन आप इस प्रशंसा को पचाने में बड़े निपुण हैं। अनादिकाल से सारे भक्त आपकी स्तुति कर रहे हैं, पर आपको तो कभी अहंकार हुआ नहीं, ऐसी स्थिति में यह प्रशंसा आपको ही निवेदित है।