Tuesday, October 23, 2018

चंदा का चकोर


रात काफ़ी गहरा गई थी. आसमान में चाँद की आभा धीरे-धीरे निखर रही थी. एक चकोर अपने घोंसले में ख़ामोशी के साथ बैठा हुआ था. उसकी नज़र आसमान से झांकते चाँद पर पड़ रही थी. लेकिन सामने वाली छत पर मौजूद पानी की टंकी चकोर को चाँद के दीदार करने से रोक रही थी. कई दिनों से बीमार चकोर के पूरे शरीर में भयानक पीड़ा हो रही थी. लेकिन उसके मन में चाँद को निहारने और छूने की चाहत उमड़ रही थी. चाँद धीरे-धीरे आसमान में ऊपर उठ रहा था. पानी की टंकी नीचे छूट रही थी. उधर चकोर की चाँद को पाने और उसके साथ एकाकार हो जाने की तमन्ना अपने चरम पर पहुंच रही थी.

समय बीतने के साथ धुंधला और पीला चाँद काफ़ी चमकीला हो रहा था. चकोर के लिए आज की रात ख़ास और बाकी रातों से अलग थी. चकोर चाँद की सुंदरता में खोता जा रहा था. आज चकोर का अपने दिलों की धडक़नों पर कोई ज़ोर नहीं था. उसके मन में चाँद के प्रति उमड़ती चाहतों के समंदर के अलावा कोई शोर नहीं था.

दिल में चाँद को पाने की हसरतों के साथ चकोर ने अंततः अपने घोसले से उड़ान भरी. उसके प्रेम के आगे उसका दर्द पराजित होकर रह गया था. चारो तरफ़ चांदनी रात का जादू बिखर रहा था. चकोर की आँखों में तो बस चाँद की ही मूरत छबि बसी हुई थी. उसके मन में चांद को पाने के सिवा कोई हसरत नहीं थी. लेकिन काफ़ी ऊंचाई तक पहुंचने के बाद भी चाँद, चकोर की पहुंच से बहुत दूर था.

चकोर उड़ते-उड़ते बहुत थक गया था. लेकिन वह सारी हिम्मत जुटाकर पहाड़ों की तरफ़ आगे बढ़ रहा था. अब चाँद और चमकीला हो चला था. चारो ओर चांदनी रात का जादू अपने सबाब पर था. लेकिन उसकी हिम्मत अब जबाब दे रही थी. पहाड़ों के इस तरफ़ वाली नदी को पार करते -करते वह बीच में ही लड़खड़ा कर गिरने लगा. उसे लगा कि चाँद को छूने अभिलाषा का उसके जीवन के साथ ही अब अंत हो जाएगा.

अचानक उसकी नजर नदी में उसी आभा से चमकते और पहले से भी ज्यादा जीवंत लग रहे चांद पर पड़ी. ख़ुशी और उमंग के भाव से उसकी आंखें बंद हो गईं थीं. लेकिन पानी में चांद की परछाई पर गिरने के बाद वह फूलों की हिफाजत के लिए बने कंटीली बाड़ में फंस गया. यहाँ उसके मन में एक तरफ चांद को छू लेने की खुशी थी तो दूसरी तरफ कांटों में बिंधे होने का असीम दर्द.

इसी तडप और खुशी के भाव के साथ चकोर की चाँद को पाने वाली उड़ान हमेशा के लिए ठहर गई थी. चांद की दूधिया रोशनी में नदी में खून के लाल कतरे तैर रहे थे. ऐसा लग रहा था जैसे चांद अपने चाहने वाले का यह अंजाम देखकर खून के आंसू रोया हो और इन आंसुओं से भीगा उसका चेहरा काला पड़ गया हो. चांद की तडफ़ और छटपटाहट से उसका चेहरा कांतिहीन हो गया था.

आज की रात बड़ी लंबी थी. आखिर किसी के परीक्षा की घड़ी जो थी. उस रात किसी प्रेमी की जिंदगी और मोहब्बत के बीच जंग का फैसला होना था. एक प्रेमी चकोर की जिंदगी चाँद की मोहब्बत में कुर्बान हो गई थी.  रात ढल चुकी थी. एक तरफ़ आसमान में सूरज की लालिमा झांक रही थी. दूसरी तरफ़ चकोर की मौत के ग़म में मुरझाया चांद अब भी आसमान से मौजूद था. नदी के किनारे पर लगे उन कटीले तारों से आज़ाद होने की कोशिश में उलझा चकोर मृत पड़ा था.

Monday, October 22, 2018

प्रेम की परीक्षा

 चकवा पक्षी के विषय में प्रसिद्धि है कि रात्रि के समय चकई से उसका वियोग हो जाता है और दोनों एक दूसरे के लिए विलाप करते रहते हैं। सारस के सम्बन्ध में कहा जाता है यदि उसके जोड़े में से एक की मृत्यु हो जाय, तो दूसरा भी अपने प्राणों का परित्याग कर देता है। एक दिन सारस और चकवा कहीं मिल गये। दोनों में विवाद छिड़ गया कि किसकी स्थिति सही है। सारस ने चकवे को फटकारते हुए कहा, "यह रात भर क्या चिल्लाया करते हो ?" चकवा बोला, "तो क्या अपनी प्रियतमा के वियोग में भी न चिल्लाएँ ?" सारस तिरस्कार करता हुआ बोला, "यह तो तुम प्रेम का विज्ञापन करते हो। यदि सचमुच तुम्हारी प्रीति होती, तो वियोग में तुम्हारी मृत्यु हो जाती। यह चीखना-चिल्लाना बेकार है। जब तुम वियोग में भी जीवित बने रहते हो, तब तुम्हारी प्रीति सार्थक नहीं है !" उत्तर में चकवे ने कहा, "तुमने केवल मिलन को ही जाना है, वियोग में कभी प्रेम की परीक्षा लेने का तुमने अवसर ही नहीं दिया है, इसलिए तुम क्या जानो की वियोग की स्थिति में किस पीड़ा का अनुभव होता है ? तुम तो केवल मिलन-सुख के प्रेमी हो, वियोग की स्थिति में प्राणों का परित्याग करके तुम कायरता का ही परिचय देते हो, तुम सच्चे प्रेमी नहीं हो !" तो भक्त का प्रेम कैसा होना चाहिए ? -- सारस जैसा या चकवा-जैसा ? श्री हरिवंश स्वामीजी एक बड़ी सुंदर बात कहते हैं --भक्ति का रस न तो मिलन-रस है और न विरह-रस, वह तो मिलन-बिरहा रस है, जहाँ संयोग में भी निरन्तर वियोग की अनुभूति बनी रहती है और वियोग में निरन्तर संयोग की। 

Monday, October 15, 2018

सुनने की कला

महावीर के पास एक युवक आया है। और वह जानना चाहता है कि सत्य क्या है। तो महावीर कहते हैं कि कुछ दिन मेरे पास रह। और इसके पहले कि मैं तुझे कहूं, तेरा मुझसे जुड़ जाना जरूरी है। एक वर्ष बीत गया है और उस युवक ने फिर पुन: पूछा है कि वह सत्य आप कब कहेंगे? महावीर ने कहा कि मैं उसे कहने की निरंतर चेष्टा कर रहा हूं लेकिन मेरे और तेरे बीच कोई सेतु नहीं है .  तू अपने प्रश्न को भी भूल और अपने को भी भूल। तू मुझसे जुड्ने की कोशिश कर। और ध्यान रख, जिस दिन तू जुड़ जाएगा, उस दिन तुझे पूछना नहीं पड़ेगा कि सत्य क्या है? मैं तुझसे कह दूंगा। फिर अनेक वर्ष बीत गए। वह युवक रूपांतरित हो गया। उसके जीवन में और ही जगत की सुगंध आ गई। कोई और ही फूल उसकी आत्मा में खिल गए। एक दिन महावीर ने उससे पूछा कि तूने सत्य के संबंध में पूछना अनेक वर्षों से छोड़ दिया? उस युवक ने कहा, पूछने की जरूरत न रही। जब मैं जुड़ गया, तो मैंने सुन लिया। तो महावीर ने अपने और शिष्यों से कहा कि एक वक्त था, यह पूछता था, और मैं न कह पाया। और अब एक ऐसा वक्त आया कि मैंने इससे कहा नहीं है और इसने सुन लिया!

Saturday, August 25, 2018

यात्रा

भगवान श्री राघवेन्द्र ने एक बार लक्ष्मणजी से पूछा था -- तुमने मेरे साथ अयोध्या से चलकर सारे संसार की यात्रा की, उन सभी यात्राओं में तुम्हें किस यात्रा में सर्वाधिक आनन्द आया ? लक्ष्मणजी ने बताया कि उन्हें लंका की यात्रा में ही सबसे अधिक आनन्द मिला। भगवान बोले -- लंका का मार्ग तो बड़ा कंटकाकीर्ण था।
लक्ष्मणजी बोले -- उस समय नहीं था।-- तब ?
लक्ष्मणजी ने कहा -- प्रभो ! मेघनाथ के बाण चलाने पर जब मैं मूर्छित हो गया था, उस समय जो यात्रा हुई, उतनी बढ़िया यात्रा कभी नहीं हुई। प्रभु ने कहा -- तुम तो मूर्छित हो गए थे, फिर यात्रा कैसे हुई ? लक्ष्मणजी बोले -- यही तो आश्चर्य है ; चलकर तो व्यक्ति आप तक पहुँचने की चेष्टा करता है और पहुँचता भी है, परन्तु जब मैं मूर्छित हो गया था और हनुमानजी ने मुझे अपनी गोद में उठाकर आपकी गोद में दे दिया, तो मुझे तो एक पग भी नहीं चलना पड़ा और मैं सन्त की गोद के माध्यम से भगवन्त की गोद में पहुँच गया।

परिचय

जब हनुमानजी से भगवान् का पहली बार मिलन हुआ था, तो प्रभु ने उनसे पूछा था --  हनुमान, मैंने तो अपना चरित्र सुना दिया, अब आप भी अपनी कथा सुनाइए। इस पर हनुमानजी ने उन्हें उलाहना दी थी --
 महाराज ,जीव भले ही आपको भूल जाए ,पर आप भला जीव को कैसे भूल सकते हैं ? मैंने तो जीव के स्वभाववश आपसे आपका परिचय पूछा, जीव विस्मृतशील है, वह भूल जाता है, पर आप तो सर्वज्ञ हैं और सर्वज्ञ होने के नाते क्या आपको पता नहीं कि मैं कौन हूँ ? आप कब से भूलने लगे ? भगवान राम ने सफाई दी -- नहीं, नहीं, भूला नहीं हूँ
इसके उत्तर में हनुमानजी ने जो कहा, उसे परिचय नहीं कहा जा सकता, क्योंकि परिचय तो तब होता है जब हनुमानजी अपने जन्म की चरित्र की कथा सुनाते और कहते कि मैं पवन और अंजना का या कि केशरी और अंजना का पुत्र हूँ, पर वे तो कहते हैं --
 - मैं मन्द हूँ, मोह के वश में हूँ, कुटिल हृदय वाला हूँ, अज्ञानी हूँ। इस पर भगवान् ने हँसकर हनुमानजी की ओर देखा, मानो यह पूछ रहे हों -- यह कथा सुना रहे हो या व्यथा ? हनुमानजी बोले --महाराज, मैं यही तो कहना चाहता था कि कथा तो केवल आपकी ही है, जीव की तो व्यथा ही व्यथा है। जीव अपनी व्यथा और समस्या ही आपके सामने रख सकता है। हनुमानजी की आकुल वाणी सुनकर भगवान उन्हें हृदय से लगा लेते हैं और उनका नाम लेते हुए कहते हैं -- मैं तुम्हें भूला नहीं हूँ ; यदि मैं भूला होता तो तुम्हारे न बताने पर भी तुम्हारा नाम मुझे कैसे ध्यान में रहता ?

प्रशंसा का रोग

कितना बड़ा था प्रशंसा का व्यंजन और परोसने वाले थे साक्षात भगवान् ! लेकिन भरतजी ने भगवान को उसका भोग लगा दिया। भगवान् ने पूछा, "भरत, यह बताओ मैं जो कह रहा हूँ, वह ठीक है या नहीं ? मेरी दृष्टि पर तुम्हें विश्वास है या नहीं ?" भरत जी बोले, "प्रभु , मैं आपकी दृष्टि पर विश्वास कैसे न करूँ ? जब आप कह रहे हैं, तब अवश्य होगा।"  "अब तो अपनी निन्दा नहीं करोगे ? अपने को पापी नहीं कहोगे ?"  भरत जी ने कहा," नहीं महाराज, मैं जानता हूँ, आपके सामने एक समस्या है।"
" वह क्या ?"
" यह कि दोष तो आप देख ही नहीं पाते। इसलिए मेरे दोष आपको दिखाई नहीं देते हैं तो वह ठीक ही है।"
भगवान् ने पूछा," अच्छा, दोष देखना यदि मुझे नहीं आता तो गुण देखना तो आता है ?"
भरत जी बोले, "महाराज, गुण देखना आपको आता तो है, पर मैं आपसे पूछता हूँ यदि तोता बहुत बढ़िया श्लोक पढ़ने लगे और बन्दर बहुत बढ़िया नाचने लगे तो यह बन्दर या तोते की विशेषता है अथवा पढ़ाने और नचाने वाले की ?"
 भगवान ने कहा," पढ़ाने और नचाने वाले की।
" महाराज, बिल्कुल ठीक कहा आपने। मैं तो तोते और बन्दर की तरह हूँ। यदि मुझमें कोई विशेषता दिखाई देती है तो पढ़ाने और नचाने वाले तो आप ही हैं। इसलिए यह प्रशंसा आपको ही अर्पित है।"
भगवान ने भरत से कहा, "भरत, तो प्रशंसा तुमने लौटा दी ?"
भरत जी बोले," प्रभु,  प्रशंसा का कुपथ्य सबमें अजीर्ण पैदा कर देता है, सबको डमरुआ रोग से ग्रस्त कर देता है। लेकिन आप इस प्रशंसा को पचाने में बड़े निपुण हैं। अनादिकाल से सारे भक्त आपकी स्तुति कर रहे हैं, पर आपको तो कभी अहंकार हुआ नहीं, ऐसी स्थिति में यह प्रशंसा आपको ही निवेदित है।

Saturday, July 7, 2018

प्रार्थना का बल

एकम्समे की बात है । एक वृद्ध महिला  एक सब्जी की दुकान पर जाती है. उसके पास सब्जी खरीदने के पैसे नहीं होते. वो दुकानदार से प्रार्थना करती है कि उसे सब्जी उधार दे दे.पर दुकानदार मना कर देता है. बार बार आग्रह करने पर दुकानदार खीज कर कहता है," तुम्हारे पास कुछ ऐसा है , जिसकी कोई कीमत हो ,
तो उसे इस तराजू पर रख दो,  मैं उसके वज़न के बराबर सब्जी तुम्हे दे दूंगा."  वृद्ध महिला कुछ देर सोच में पड़ जाती है. उसके पास ऐसा कुछ भी नहीं था. कुछ देर सोचने के बाद वह , एक मुड़ा तुड़ा कागज़ का टुकड़ा निकलती है और उस पर कुछ लिख कर तराजू पर रख देती है. दुकानदार ये देख कर हंसने लगता है.
फिर भी वह थोड़ी सब्जी उठाकर तराजू पर रखता है.

आश्चर्य...!!!कागज़ वाला पलड़ा नीचे रहता है और सब्जी वाला ऊपर उठ जाता है. इस तरह वो और सब्जी रखता जाता है पर कागज़ वाला पलड़ा नीचे नहीं होता. तंग आकर दुकानदार उस कागज़ को उठा कर पढता है और हैरान रह जाता है. कागज़ पर लिखा था."हे इश्वर, तुम सर्वज्ञ हो,  अब सब कुछ तुम्हारे हाथ मे है दुकानदार को अपनी आँखों पर यकीन नहीं हो रहा था. वो उतनी सब्जी वृद्ध महिला को दे देता है. पास खड़ा एक अन्य ग्राहक दुकानदार को समझाता है," दोस्त,आश्चर्य मत करो.  केवल ईश्वर ही जानते हैं की प्रार्थना का मूल्य क्या होता है."

Sunday, May 13, 2018

निन्यानबे का फेर

एक सम्राट का एक नाई था। वह उसकी मालिश करता, हजामत बनाता। सम्राट बड़ा हैरान होता था कि वह हमेशा प्रसन्न, बड़ा आनंदित, बड़ा मस्त! उसको एक रुपया रोज मिलता था। बस, एक रुपया रोज में वह खूब खाता-पीता, मित्रों को भी खिलाता-पिलाता। सस्ते जमाने की बात थी। रात जब सोता तो उसके पास एक पैसा न होता; वह निश्चिन्त सोता। सुबह एक रुपया फिर उसे मिल जाता मालिश करके। वह बड़ा खुश था! इतना खुश था कि सम्राट को उससे ईर्ष्या होने लगी। सम्राट भी इतना खुश नहीं था। खुशी कहां! उदासी और चिंताओं के बोझ और पहाड़ उसके सिर पर थे।

उसने पूछा नाई से कि तेरी प्रसन्नता का राज क्या है? उसने कहा, मैं तो कुछ जानता नहीं, मैं कोई बड़ा बुद्धिमान नहीं। लेकिन, जैसे आप मुझे प्रसन्न देख कर चकित होते हो, मैं आपको देख कर चकित होता हूं कि आपके दुखी होने का कारण क्या है? मेरे पास तो कुछ भी नहीं है और मैं सुखी हूँ; आपके पास सब है, और आप सुखी नहीं! आप मुझे ज्यादा हैरानी में डाल देते हैं। मैं तो प्रसन्न हूँ, क्योंकि प्रसन्न होना स्वाभाविक है, और होने को है ही क्या?

वजीर से पूछा सम्राट ने एक दिन कि इसका राज खोजना पड़ेगा। यह नाई इतना प्रसन्न है कि मेरे मन में ईर्ष्या की आग जलती है कि इससे तो बेहतर नाई ही होते। यह सम्राट हो कर क्यों फंस गए? न रात नींद आती, न दिन चैन है; और रोज चिंताएं बढ़ती ही चली जाती हैं। घटता तो दूर, एक समस्या हल करो, दस खड़ी हो जाती हैं। तो नाई ही हो जाते।

वजीर ने कहा, आप घबड़ाएं मत। मैं उस नाई को दुरुस्त किए देता हूँ।

वजीर तो गणित में कुशल था। सम्राट ने कहा, क्या करोगे? उसने कहा, कुछ नहीं। आप एक-दो-चार दिन में देखेंगे। वह एक निन्यानबे रुपये एक थैली में रख कर रात नाई के घर में फेंक आया। जब सुबह नाई उठा, तो उसने निन्यानबे गिने, बस वह चिंतित हो गया। उसने कहा, बस एक रुपया आज मिल जाए, तो आज उपवास ही रखेंगे, सौ पूरे कर लेंगे!

बस, उपद्रव शुरू हो गया। कभी उसने इकट्ठा करने का सोचा न था, इकट्ठा करने की सुविधा भी न थी। एक रुपया मिलता था, वह पर्याप्त था जरूरतों के लिए। कल की उसने कभी चिंता ही न की थी। ‘कल’ उसके मन में कभी छाया ही न डालता था; वह आज में ही जीया था। आज पहली दफा ‘कल’ उठा।

निन्यानबे पास में थे, सौ करने में देर ही क्या थी! सिर्फ एक दिन तकलीफ उठानी थी कि सौ हो जाएंगे। उसने दूसरे दिन उपवास कर दिया। लेकिन, जब दूसरे दिन वह आया सम्राट के पैर दबाने, तो वह मस्ती न थी, उदास था, चिंता में पड़ा था, कोई गणित चल रहा था। सम्राट ने पूछा, आज बड़े चिंतित मालूम होते हो? मामला क्या है?

उसने कहा: नहीं हजूर, कुछ भी नहीं, कुछ नहीं सब ठीक है।

मगर आज बात में वह सुगंध न थी जो सदा होती थी। ‘सब ठीक है’ ऐसे कह रहा था जैसे सभी कहते हैं, सब ठीक है। जब पहले कहता था तो सब ठीक था ही। आज औपचारिक कह रहा था।

सम्राट ने कहा, नहीं मैं न मानूंगा। तुम उदास दिखते हो, तुम्हारी आंख में रौनक नहीं। तुम रात सोए ठीक से?

उसने कहा, अब आप पूछते हैं तो आपसे झूठ कैसे बोलूं! रात नहीं सो पाया। लेकिन सब ठीक हो जाएगा, एक दिन की बात है। आप घबड़ाएं मत।

लेकिन वह चिंता उसकी रोज बढ़ती गई। सौ पूरे हो गए, तो वह सोचने लगा कि अब सौ तो हो ही गए; अब धीरे-धीरे इकट्ठा कर लें, तो कभी दो सौ हो जाएंगे। अब एक-एक कदम उठने लगा। वह पंद्रह दिन में बिलकुल ही ढीला-ढाला हो गया, उसकी सब खुशी चली गई। सम्राट ने कहा, अब तू बता ही दे सच-सच, मामला क्या है? मेरे वजीर ने कुछ किया?

तब वह चौंका। नाई बोला, क्या मतलब? आपका वजीर? अच्छा, तो अब मैं समझा। अचानक मेरे घर में एक थैली पड़ी मिली मुझे – निन्यानबे रुपए। बस, उसी दिन से मैं मुश्किल में पड़ गया हूं। निन्यानबे का फेर!

Saturday, May 12, 2018

बहुमूल्य सुत्र

एक सम्राट ने अपने सारे बुद्धिमानों को बुलाया और उनसे कहा – मैं कुछ ऐसा सुत्र चाहता हूं, जो छोटा हो, बडे शास्त्र नहीं चाहिए, मुझे फुर्सत भी नहीं बडे शास्त्र पढने की। वह ऐसा सुत्र हो जो एक वचन में पूरा हो जाये और जो हर घडी में काम आये। दूख हो या सुख, जीत हो या हार, जीवन हो या मृत्यु सब में काम आये, तो तुम लोग ऐसा सुत्र खोज लाओ।
उन बुद्धिमानों ने बडी मेहनत की, बडा विवाद किया कुछ निष्कर्ष नहीं हो सका। वे आपस में बात कर रहे थे, एक ने कहा- हम बडी मुश्किल में पडे हैं बड़ा विवाद है, संघर्ष है , कोई निष्कर्ष नहीं हो पाय, हमने सुना हैं एक सूफी फकीर गांव के बाहर ठहरा है वह प्रज्ञा को उपलब्ध संबोधी को उपलब्ध व्यक्ति है, क्यों न हम उसी के पास चलें ?वे लोग उस सुफी फकीर के पास पहूंचे उसने एक अंगुठी पहन रखी थी अपनी अंगुली में वह निकालकर सम्राट को दे दी और कहा – इसे पहन लो। इस पत्थर के नीचे एक छोटा सा कागज रखा है, उसमें सुत्र लिखा है, वह मेरे गुरू ने मुझे दिया था, मुझे तो जरूरत न पडी इसलिए मैंने अभी तक खोलकर देखा नहीं। लेकिन एक शर्त याद रखना इसका वचन दे दो कि जब कोई उपाय न रह जायेगा सब तरफ से निरूपाय असहाय हो जाओंगे तभी अंतिम घडी में इसे खोलना। क्योंकि यह सुत्र बडा बहुमूल्य है अगर इसे साधारणतः खोला गया तो अर्थहीन होगा।
सम्राट ने अंगुठी पहन ली, वर्षो बीत गये कई बार जिज्ञासा भी हुई फिर सोचा कि कही खराब न हो जाए, फिर काफी वर्षो बाद एक युद्ध हुआ जिसमें सम्राट हार गया, और दुश्मन जीत गया। उसके राज्य को हडप लिया | सम्राट एक घोडे पर सवार होकर भागा अपनी जान बचाने के लिए राज्य तो गया संघी साथी, दोस्त, परिवार सब छुट गये, दुष्मन सम्राट का पीछा कर रहा था, सम्राट एक पहाडी घाटी से होकर भागा जा रहा था, पीछे घोडों की आवाजें आ रही थी टापे सुनाई दे रही थी। प्राण संकट में थे, अचानक उसने पाया कि रास्ता समाप्त हो गया, आगे तो भयंकर गडा है वह लौट भी नही सकता था, एक पल के लिए सम्राट स्तब्ध खडा रह गया कि क्या करें ?फिर अचानक याद आयी, खोली अंगुठी पत्थर हटाया निकाला कागज उसमें एक छोटा सा वचन लिखा था “यह भी बीत जायेगा।“ सुत्र पढते ही उस सम्राट के चेहरे पर मुस्कुराहट आ गयी उसके चेहरे पर एक बात का खयाल आया सब तो बीत गया, में सम्राट न रहा, मेरा साम्राज्य गया, सुख बीत गया, जब सुख बीत जाता है तो दुख भी स्थिर नहीं हो सकता। शायद सुत्र ठीक कहता हैं अब करने को कुछ भी नहीं हैं लेकिन सुत्र ने उसके भीतर कोई सोया तार छेंड दिया। कोई साज छेड दिया। यह भी बीत जायेगा ऐसा बोध होते ही जैसे सपना टुट गया। अब वह व्यग्र नहीं, बैचेन नहीं, घबराया हुआ नहीं था। वह बैठ गया।
संयोग की बात थी, थोडी देर तक तो घोडे की टांप सुनायी देती रहीं फिर टांप बंद हो गयी, शायद सैनिक किसी दूसरे रास्ते पर मूड गये। घना जंगल और बिहड पहाड उन्हें पता नहीं चला कि सम्राट किस तरफ गया है। धीरे-धीरे घोडो की टांप दूर हो गयी, अंगुठी उसने वापस पहन ली।कुछ दिनों बार दोबारा उसने अपने मित्रों को वापस इकठ्ठा कर लिया, फिर उसने वापस अपने दुष्मन पर हमला किया, पुनः जीत हासिल की फिर अपने सिंहासन पर बैठ गया। जब सम्राट अपने सिंहासन पर बैठा तो बडा आनंदित हो रहा था।

Thursday, May 3, 2018

तेरा या तेराह

एक समय की बात है . नानक को उनके पिता ने, बड़ी कोशिशें कीं--कुछ काम में लग जाए, कुछ धंधा कर ले। स्वभावतः प्रत्येक पिता चाहता है कि बेटा कुछ करे, कमाए। किसी ने सलाह दी कि इसको कुछ रुपए दे दो, खरीदने भेजो; कुछ सामान खरीद लाए, कुछ बेच लाए, ले जाए, व्यापार करे। कुछ लगेगा काम में तो ठीक, नहीं तो यह खराब हो जाएगा। यह धीरे-धीरे साधुओं के सत्संग में खराब हुआ जा रहा है।

कुछ रुपए दे कर उन्हें भेजा। जाते वक्त कहा कि देख, लाभ का खयाल रखना क्योंकि लाभ के बिना धंधे में कोई अर्थ नहीं है। नानक ने कहा " ठीक, खयाल रखूंगा।"वे दूसरे दिन घर वापिस आ गए। खाली चले आ रहे थे और बड़े प्रसन्न थे। पिता ने पूछा " क्या हुआ, बड़ा प्रसन्न दिखायी पड़ता है! इत्ती जल्दी भी आ गया! और कुछ सामान इत्यादि कहां है? "

उन्होंने कहा  "सामान छोड़ो , लाभ कमा लाया हूं। कंबल खरीद कर ला रहे थे, राह में साधु मिल गए। वे सब नंगे बैठे थे। सर्दी के दिन थे, सबको बांट दिए। आपने कहा था न कि लाभ. . .!'

पिता ने सिर ठोंक लिया होगा, कि इस लाभ के लिए थोड़े ही कहा था। कहां के लफंगों को, फिजूल के आदमियों को कंबल बांट आया! ऐसे कहीं धंधा होगा? लेकिन नानक ने कहा " आपने ही कहा था कि कुछ लाभ करके आना। अब मैंने देखा कि अगर कंबल लाकर बेचूंगा, दस-पचास रुपए का लाभ होगा; लेकिन इन परमात्मा के प्यारों को अगर बांट दिया तो बड़ा लाभ होगा।"

फिर नौकरी पर लगा दिया। गांव के सूबेदार के घर नौकरी लगा दी । सीधा सादा काम दिलवा दिया। काम था कि जो सिपाहियों को रोज भोजन दिया जाता था, वह उनको तौलकर दे देना। तो वह दिनभर तौलते रहते तराजू लेकर। एक दिन तौलतेत्तौलते समाधि लग गई। रस तो भीतर परमात्मा में लगा था। तौलते रहते थे, बैठे रहते थे दुकान पर, काम करवा रहे थे पिता तो करते थे; लेकिन भीतर तो याद परमात्मा की चल रही थी। उसी याद के कारण यह बड़ी क्रांतिकारी घटना घट गयी। एक दिन तौलतेत्तौलते संख्या आयी--सात, आठ, नौ, दस, ग्यारह, बारह और तेरह--तो पंजाबी में "तेरह' तो नहीं है, "तेरा' है। तो "तेरा' शब्द उठते ही उसकी याद आ गयी। वह याद तो भीतर चल ही रही थी। उस याद से सूत्र जुड़ गया। "तेरा' यानी परमात्मा का। फिर तो मस्त हो गए, फिर तो मगन हो गए। फिर तो "तेरा' से आगे बढ़े ही नहीं। फिर तो तौलते ही गए। जो आया, उसको ही तौलते गए--"तेरा' और "तेरा'! खबर पहुंच गयी सूबेदार के पास कि इसका दिमाग खराब हो गया है। वे "तेरा' ही पर अटका है, और सभी को तौलता जा रहा है;जितना जिसको जो ले जा रहा है, ले जा रहा है! दुकान लुटवा देगा। पकड़कर बुलवाया गया। वह बड़े मस्त थे। उनकी आंखों में बड़ी ज्योति थी। पूछाः "यह तुम क्या कर रहे हो? उन्होंने कहा " आखिरी संख्या आ गयी, अब इसके आगे संख्या ही क्या? "तेरा' के आगे अब और जाने को जगह कहां है? बाकी तो मेरे का फैलाव है। "तेरे' की बात आ गयी, खत्म हो गया मेरे का फैलाव; अब मुझे क्षमा करो, मुझे जाने दो। आज जो मजा पाया है तेरा कह कर,अब उसको चूकना नहीं चाहता। अब तो चौबीस घंटे तेरा ही तेरा करूंगा। उसका ही सब है। वही है। आज "मेरा-मेरा'गया। आज तो तेरा ही हो गया।

Saturday, March 3, 2018

कर्म क्या है ?

एक समय की बात है । बुद्ध अपने शिष्यों के साथ बैठे थे। एक शिष्य ने पूछा- "कर्म क्या है?"बुद्ध ने कहा- "मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूँ।"

एक राजा हाथी पर बैठकर अपने राज्य का भ्रमण कर रहा था।अचानक वह एक दुकान के सामने रुका और अपने मंत्री से कहा- "मुझे नहीं पता क्यों, पर मैं इस दुकान के स्वामी को फाँसी देना चाहता हूँ।"
यह सुनकर मंत्री को बहुत दु:ख हुआ। लेकिन जब तक वह राजा से कोई कारण पूछता, तब तक राजा आगे बढ़ गया।

अगले दिन, मंत्री उस दुकानदार से मिलने के लिए एक साधारण नागरिक के वेष में उसकी दुकान पर पहुँचा। उसने दुकानदार से ऐसे ही पूछ लिया कि उसका व्यापार कैसा चल रहा है? दुकानदार चंदन की लकड़ी बेचता था। उसने बहुत दुखी होकर बताया कि मुश्किल से ही उसे कोई ग्राहक मिलता है। लोग उसकी दुकान पर आते हैं, चंदन को सूँघते हैं और चले जाते हैं। वे चंदन कि गुणवत्ता की प्रशंसा भी करते हैं, पर ख़रीदते कुछ नहीं। अब उसकी आशा केवल इस बात पर टिकी है कि राजा जल्दी ही मर जाएगा। उसकी अन्त्येष्टि के लिए बड़ी मात्रा में चंदन की लकड़ी खरीदी जाएगी। वह आसपास अकेला चंदन की लकड़ी का दुकानदार था, इसलिए उसे पक्का विश्वास था कि राजा के मरने पर उसके दिन बदलेंगे।

अब मंत्री की समझ में आ गया कि राजा उसकी दुकान के सामने क्यों रुका था और क्यों दुकानदार को मार डालने की इच्छा व्यक्त की थी। शायद दुकानदार के नकारात्मक विचारों की तरंगों ने राजा पर वैसा प्रभाव डाला था, जिसने उसके बदले में दुकानदार के प्रति अपने अन्दर उसी तरह के नकारात्मक विचारों का अनुभव किया था।

बुद्धिमान मंत्री ने इस विषय पर कुछ क्षण तक विचार किया। फिर उसने अपनी पहचान और पिछले दिन की घटना बताये बिना कुछ चन्दन की लकड़ी ख़रीदने की इच्छा व्यक्त की। दुकानदार बहुत खुश हुआ। उसने चंदन को अच्छी तरह कागज में लपेटकर मंत्री को दे दिया।

जब मंत्री महल में लौटा तो वह सीधा दरबार में गया जहाँ राजा बैठा हुआ था और सूचना दी कि चंदन की लकड़ी के दुकानदार ने उसे एक भेंट भेजी है। राजा को आश्चर्य हुआ। जब उसने बंडल को खोला तो उसमें सुनहरे रंग के श्रेष्ठ चंदन की लकड़ी और उसकी सुगंध को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ। प्रसन्न होकर उसने चंदन के व्यापारी के लिए कुछ सोने के सिक्के भिजवा दिये। राजा को यह सोचकर अपने हृदय में बहुत खेद हुआ कि उसे दुकानदार को मारने का अवांछित विचार आया था।

जब दुकानदार को राजा से सोने के सिक्के प्राप्त हुए, तो वह भी आश्चर्यचकित हो गया। वह राजा के गुण गाने लगा जिसने सोने के सिक्के भेजकर उसे ग़रीबी के अभिशाप से बचा लिया था। कुछ समय बाद उसे अपने उन कलुषित विचारों की याद आयी जो वह राजा के प्रति सोचा करता था। उसे अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए ऐसे नकारात्मक विचार करने पर बहुत पश्चात्ताप हुआ।

यदि हम दूसरे व्यक्तियों के प्रति अच्छे और दयालु विचार रखेंगे, तो वे सकारात्मक विचार हमारे पास अनुकूल रूप में ही लौटेंगे। लेकिन यदि हम बुरे विचारों को पालेंगे, तो वे विचार हमारे पास उसी रूप में लौटेंगे।

यह कहानी सुनाकर बुद्ध ने पूछा- "कर्म क्या है?" अनेक शिष्यों ने उत्तर दिया- "हमारे शब्द, हमारे कार्य, हमारी भावनायें, हमारी गतिविधियाँ..."

बुद्ध ने सिर हिलाया और कहा- *"तुम्हारे विचार ही तुम्हारे कर्म हैं।"

Monday, February 26, 2018

आधा किलो आटा

एक दिन एक सेठ जी को अपनी सम्पत्ति के मूल्य निर्धारण की इच्छा हुई। लेखाधिकारी को तुरन्त बुलवाया गया।
सेठ जी ने आदेश दिया, "मेरी सम्पूर्ण सम्पत्ति का मूल्य निर्धारण कर ब्यौरा दीजिए, यह कार्य अधिकतम एक सप्ताह में हो जाना चाहिए।" ठीक एक सप्ताह बाद लेखाधिकारी ब्यौरा लेकर सेठ जी की सेवा में उपस्थित हुआ।
सेठ जी ने पूछा- “कुल कितनी सम्पदा है? “सेठ जी, मोटे तौर पर कहूँ तो आपकी सात पीढ़ी बिना कुछ किए धरे आनन्द से भोग सके इतनी सम्पदा है आपकी।” बोला लेखाधिकारी।

लेखाधिकारी के जाने के बाद सेठ जी चिंता में डूब गए, ‘तो क्या मेरी आठवी पीढ़ी भूखों मरेगी?’ वह रात दिन चिंता में रहने लगे। तनाव ग्रस्त रहते, भूख भाग चुकी थी, कुछ ही दिनों में कृशकाय हो गए। सेठानी जी द्वारा बार बार तनाव का कारण पूछने पर भी जवाब नहीं देते।सेठानी जी से सेठ जी की यह हालत देखी नहीं जा रही थी।
मन की स्थिरता व शान्त्ति का वास्ता देकर सेठानी ने सेठ जी को साधु संत के पास सत्संग में जाने को प्रेरित कर ही लिया। सेठ जी भी पँहुच गए एक सुप्रसिद्ध संत समागम में।

एकांत में सेठ जी ने सन्त महात्मा से मिलकर अपनी समस्या का निदान जानना चाहा। “महाराज जी! मेरे दुःख का तो पार ही नहीं है, मेरी आठवी पीढ़ी भूखों मर जाएगी। मेरे पास मात्र अपनी सात पीढ़ी के लिए पर्याप्त हो इतनी ही सम्पत्ति है। कृपया कोई उपाय बताएँ कि मेरे पास और सम्पत्ति आए और अगली पीढ़ियाँ भूखी न मरे। आप जो भी बताएं मैं अनुष्ठान, विधी आदि करने को तैयार हूँ।" सेठ जी ने सन्त महात्मा से प्रार्थना की। संत महात्मा जी ने समस्या समझी और बोले- “इसका तो हल तो बड़ा आसान है। ध्यान से सुनो, सेठ! बस्ती के अन्तिम छोर पर एक बुढ़िया रहती है, एक दम कंगाल और विपन्न। न कोई कमानेवाला है और न वह कुछ कमा पाने में समर्थ है। उसे मात्र आधा किलो आटा दान दे दो। यदि वह यह दान स्वीकार कर ले तो इतना पुण्य उपार्जित हो जाएगा कि तुम्हारी मनोकामना पूर्ण हो जाएगी। तुम्हें अवश्य अपना वांछित प्राप्त होगा।” सेठ जी को बड़ा आसान उपाय मिल गया। अब कहां सब्र था उन्हें। घर पहुंच कर सेवक के साथ एक क्विंटल आटा लेकर पहुँच गए बुढिया की झोंपड़ी पर।

“माताजी! मैं आपके लिए आटा लाया हूँ इसे स्वीकार कीजिए।"सेठ जी बोले। “आटा तो मेरे पास है,बेटा! मुझे नहीं चाहिए।”  बुढ़िया ने स्पष्ट इन्कार कर दिया। सेठ जी ने कहा- “फिर भी रख लीजिए” l बूढ़ी मां ने कहा- “क्या करूंगी रख कर मुझे आवश्यकता ही नहीं है।”  सेठ जी बोले, “अच्छा, कोई बात नहीं,एक क्विंटल न सही यह आधा किलो तो रख लीजिए” l “बेटा!आज खाने के लिए जरूरी,आधा किलो आटा पहले से ही मेरे पास है, मुझे अतिरिक्त की जरूरत नहीं है।” बुढ़िया ने फिर स्पष्ट मना कर दिया। लेकिन सेठ जी को तो सन्त महात्मा जी का बताया उपाय हर हाल में पूरा करना था। एक कोशिश और करते सेठ जी बोले “तो फिर इसे कल के लिए रख लीजिए।” बूढ़ी मां ने कहा- “बेटा! कल की चिंता मैं आज क्यों करूँ, जैसे हमेशा प्रबंध होता आया है कल के लिए भी कल ही प्रबंध हो जाएगा।” इस बार भी बूढ़ी मां ने लेने से साफ इन्कार कर दिया।सेठ जी की आँखें खुल चुकी थी,"एक गरीब बुढ़िया कल के भोजन की चिंता नहीं कर रही और मेरे पास अथाह धन सामग्री होते हुए भी मैं आठवी पीढ़ी की चिन्ता में घुल रहा हूँ। मेरी चिंता का कारण अभाव नहीं तृष्णा है।"

 वाकई तृष्णा का कोई अन्त नहीं है।


उत्तराधिकारी

एक समय की बात है .  एक बहुत बड़ा फकीर हुआ। वह अपने गुरु के पास गया तो गुरु ने उससे पूछा कि तू सच में संन्यासी हो जाना चाहता है कि संन्यासी दिखना चाहता है? उसने कहा कि जब संन्यासी ही होने आया तो दिखने का क्या करूंगा? होना चाहता हूं। तो गुरु ने कहा, फिर ऐसा कर, यह अपनी आखिरी मुलाकात हुई। पाँच सौ संन्यासी हैं इस आश्रम में तू उनका चावल कूटने का काम कर। अब दुबारा यहां मत आना। जरूरत जब होगी, मैं आ जाऊंगा।   बारह साल बीत गए। वह संन्यासी चौके के पीछे, अंधेरे गृह में चावल कूटता रहा। पांच सौ संन्यासी थे। सुबह से उठता, चावल कूटता रहता। रात थक जाता, सो जाता। बारह साल बीत गए। वह कभी गुरु के पास दुबारा नहीं गया। क्योंकि जब गुरु ने कह दिया, तो बात खतम हो गयी। जब जरूरत होगी वे आ जाएंगे, भरोसा कर लिया।
कुछ दिनों तक तो पुराने खयाल चलते रहे, लेकिन अब चावल ही कूटना हो दिन—रात तो पुराने खयालों को चलाने से फायदा भी क्या? धीरे—धीरे पुराने खयाल विदा हो गए। उनकी पुनरुक्ति में कोई अर्थ न रहा। खाली हो गए, जीर्ण—शीर्ण हो गए। बारह साल बीतते—बीतते तो उसके सारे विदा ही हो गए विचार। चावल ही कूटता रहता। शांत रात सो जाता, सुबह उठ आता, चावल कूटता रहता। न कोई अड़चन, न कोई उलझन। सीधा—सादा काम, विश्राम। बारह साल बीतने पर गुरु ने घोषणा की कि मेरे जाने का वक्त आ गया और जो व्यक्ति भी उत्तराधिकारी होना चाहता हो मेरा, रात मेरे दरवाजे पर चार पंक्तियां लिख जाए जिनसे उसके सत्य का अनुभव हो। लोग बहुत डरे, क्योंकि गुरु को धोखा देना आसान न था। शास्त्र तो बहुतों ने पढ़े थे। फिर जो सब से बडा पंडित था, वही रात लिख गया आकर। उसने लिखा कि मन एक दर्पण की तरह है, जिस पर धूल जम जाती है। धूल को साफ कर दो, धर्म उपलब्ध हो जाता है। धूल को साफ कर दो, सत्य अनुभव में आ जाता है। सुबह गुरु उठा, उसने कहा, यह किस नासमझ ने मेरी दीवाल खराब की? उसे पकड़ो।
वह पंडित तो रात ही भाग गया था, क्योंकि वह भी खुद डरा था कि धोखा दें! यह बात तो बढ़िया कही थी उसने, पर शास्त्र से निकाली थी। यह कुछ अपनी न थी। यह कोई अपना अनुभव न था।    वह रात ही भाग गया था कि कहीं अगर सुबह गुरु ने कहा, ठीक! तो मित्रों को कह गया था, खबर कर देना; अगर गुरु कहे कि पकड़ो, तो मेरी खबर मत देना। सारा आश्रम चिंतित हुआ। इतने सुंदर वचन थे। वचनों में क्या कमी है? मन दर्पण की तरह है, शब्दों की, विचारों की, अनुभवों की धूल जम जाती है। बस इतनी ही तो बात है। साफ कर दो दर्पण, सत्य का प्रतिबिंब फिर बन जाता है। लोगों ने कहा, यह तो बात बिलकुल ठीक है, गुरु जरा जरूरत से ज्यादा कठोर है। पर अब देखें, इससे ऊंची बात कहां से गुरु ले आएंगे। ऐसी बात चलती थी, चार संन्यासी बात करते उस चावल कूटने वाले आदमी के पास से निकले। वह भी सुनने लगा उनकी बात। सारा आश्रम गर्म! इसी एक बात से गर्म था।
सुनी उनकी बात, वह हंसने लगा। उनमें से एक ने कहा, तुम हंसते हो! बात क्या है? उसने कहा, गुरु ठीक ही कहते हैं। यह किस नासमझ ने लिखा? वे चारों चौंके। उन्होंने कहा, तू बारह साल से चावल ही कूटता रहा, तू भी इतनी हो गया! हम शास्त्रों से सिर ठोंक—ठोंककर मर गए। तो तू लिख सकता है इससे बेहतर कोई वचन? उसने कहा, लिखना तो मैं भूल गया, बोल सकता हूं अगर कोई लिख दे जाकर। लेकिन एक बात खयाल रहे, उत्तराधिकारी होने की मेरी कोई आकांक्षा नहीं। यह शर्त बता देना कि वचन तो मै बोल देता हूं अगर कोई लिख भी दे जाकर—मैं तो लिखूंगा नहीं, क्योंकि मैं भूल गया, बारह साल हो गए कुछ लिखा नहीं—उत्तराधिकारी मुझे होना नहीं है। अगर इस लिखने की वजह से उत्तराधिकारी होना पड़े, तो मैंने कान पकड़े, मुझे लिखवाना भी नहीं। पर उन्होंने कहा, बोल! हम लिख देते है जाकर। उसने लिखवाया कि लिख दो जाकर—कैसा दर्पण? कैसी धूल? न कोई दर्पण है, न कोई धूल है, जो इसे जान लेता है, धर्म को उपलब्ध हो जाता है।
आधी रात गुरु उसके पास आया और उसने कहा कि अब तू यहां से भाग जा। अन्यथा ये पांच सौ तुझे मार डालेंगे। यह मेरा चोगा ले, तू मेरा उत्तराधिकारी बनना चाहे या न बनना चाहे, इससे कोई सवाल नही, तू मेरा उत्तराधिकारी है। मगर अब तू यहां से भाग जा। अन्यथा ये बर्दाश्त न करेंगे कि चावल कूटने वाला और सत्य को उपलब्ध हो गया, और ये सिर कूट—कूटकर मर गए।

Friday, February 16, 2018

कर्मों का हिसाब

एक स्त्री थी जिसे 20साल तक संतान नहीं हुई।कर्म संजोग से 20वर्ष के बाद वो गर्भवती हुई और उसे पुत्र संतान की प्राप्ति हुई किन्तु दुर्भाग्यवश 20दिन में वो संतान मृत्यु को प्राप्त हो गयी।वो स्त्री हद से ज्यादा रोई और उस मृत बच्चे का शव लेकर एक सिद्ध महात्मा के पास गई ।महात्मा से रोकर कहने लगी मुझे मेरा बच्चा बस एक बार जीवित करके दीजिये, मात्र एक बार मैं उसके मुख से" माँ " शब्द सुनना चाहती हूँ ।स्त्री के बहुत जिद करने पर महात्मा ने 2मिनट के लिए उस बच्चे की आत्मा को बुलाया। तब उस स्त्री ने उस आत्मा से कहा तुम मुझे क्यों छोड़कर चले गए?मैं तुमसे सिर्फ एक बार ' माँ ' शब्द सुनना चाहती हूँ। तभी उस आत्मा ने कहा कौन माँ?कैसी माँ !!मैं तो तुमसे कर्मों का हिसाब किताब करने आया था।स्त्री ने पूछा कैसा हिसाब!!आत्मा ने बताया पिछले जन्म में तुम मेरी सौतन थी,मेरे आँखों के सामने मेरे पति को ले गई;मैं बहुत रोई तुमसे अपना पति मांगा पर तुमने एक न सुनी।तब मैं रो रही थी और आज तुम रो रही हो!!बस मेरा तुम्हारे साथ जो कर्मों का हिसाब था वो मैंने पूरा किया और मर गया। इतना कहकर आत्मा चली गयी।उस स्त्री को झटका लगा।उसे महात्मा ने समझाया देखो मैने कहा था न कि ये सब रिश्तेदार माँ,पिता,भाई बहन सब कर्मों के कारण जुड़े हुए हैं ।हम सब कर्मो का हिसाब करने आये हैं। इसिलए बस अच्छे कर्म करो ताकि हमे बाद में भुगतना ना पड़े।वो स्त्री समझ गयी और अपने घर लौट गयी ।

Thursday, February 15, 2018

तत्व ज्ञान

एक बार की बात है एक बहुत ही पुण्य व्यक्ति अपने परिवार सहित तीर्थ के लिए निकला.. कई कोस दूर जाने के बाद पूरे परिवार को प्यास लगने लगी , ज्येष्ठ का महीना था , आस पास कहीं पानी नहीं दिखाई पड़ रहा था.  उसके बच्चे प्यास से ब्याकुल होने लगे..समझ नहीं आ रहा था कि वो क्या करे . अपने साथ लेकर चलने वाला पानी भी समाप्त हो चुका था. एक समय ऐसा आया कि उसे भगवान से प्रार्थना करनी पड़ी कि हे प्रभु अब आप ही कुछ करो मालिक इतने में उसे कुछ दूर पर एक साधू तप करता हुआ नजर आया.  व्यक्ति ने उस साधू से जाकर अपनी समस्या बताई . साधू बोले की यहाँ से एक कोस दूर उत्तर की दिशा में एक छोटी दरिया बहती है जाओ जाकर वहां से पानी की प्यास बुझा लो. साधू की बात सुनकर उसे बड़ी प्रसन्नता हुयी और उसने साधू को धन्यवाद बोला. पत्नी एवं बच्चो की स्थिति नाजुक होने के कारण वहीं रुकने के लिया बोला और खुद पानी लेने चला गया. जब वो दरिया से पानी लेकर लौट रहा था तो उसे रास्ते में पांच व्यक्ति मिले जो अत्यंत प्यासे थे. पुण्य आत्मा को उन पांचो व्यक्तियों की प्यास देखि नहीं गयी और अपना सारा पानी उन प्यासों को पिला दिया. जब वो दोबारा पानी लेकर आ रहा था तो पांच अन्य व्यक्ति मिले जो उसी तरह प्यासे थे.  पुण्य आत्मा ने फिर अपना सारा पानी उनको पिला दिया. यही घटना बार बार हो रही थी. और काफी समय बीत जाने के बाद जब वो नहीं आया तो साधू उसकी तरफ चल पड़ा.. बार बार उसके इस पुण्य कार्य को देखकर साधू बोला - " हे पुण्य आत्मा तुम बार बार अपना बाल्टी भरकर दरिया से लाते हो और किसी प्यासे के लिए ख़ाली कर देते हो  इससे तुम्हे क्या लाभ मिला? पुण्य आत्मा ने बोला मुझे क्या मिला ? या क्या नहीं मिला इसके बारें में मैंने कभी नहीं सोचा पर मैंने अपना स्वार्थ छोड़कर अपना धर्म निभाया.  साधू बोला - " ऐसे धर्म निभाने से क्या फ़ायदा जब तुम्हारे  अपने बच्चे और परिवार ही  जीवित ना बचे? तुम अपना धर्म ऐसे भी निभा सकते थे जैसे मैंने निभाया. पुण्य आत्मा ने पूछा - " कैसे महाराज?  साधू बोला - " मैंने तुम्हे दरिया से पानी लाकर देने के बजाय दरिया का रास्ता ही बता दिया...तुम्हे भी उन सभी प्यासों को दरिया का रास्ता बता देना चाहिए था ताकि तुम्हारी भी प्यास मिट जाये और अन्य प्यासे लोगो की भी फिर किसी को अपनी बाल्टी ख़ाली करने की जरुरत ही नहीं..."  इतना कहकर साधू अंतर्ध्यान हो गया . पुण्य आत्मा को सबकुछ समझ आ गया की अपना पुण्य ख़ाली कर दुसरो को देने के बजाय , दुसरो को भी पुण्य अर्जित करने का रास्ता या विधि बताये..

Monday, January 29, 2018

श्रद्धा के फूल

एक बार किसी गांव में महात्मा बुध्द का आगमन हुआ। सब इस होड़ में लग गये कि क्या भेंट करें। इधर गावँ में एक गरीब मोची था। उसने देखा कि मेरे घर के बाहर के तालाब में बेमौसम का एक कमल खिला है। उसकी इच्छा हुई कि, आज नगर में महात्मा आए हैं, सब लोग तो उधर ही गए हैं, तो आज मेरा काम चलेगा नहीं, इसलिए आज लगता है कि यह फूल बेचकर ही गुजारा पड़ेगा । वह तालाब के अंदर कीचड़ में घुस गया। कमल के फूल को लेकर आया। केले के पत्ते का दोना बनाया..और उसके अंदर कमल का फूल रख दिया। पानी की कुछ बूंदें कमल पर पड़ी हुई हैं ..और वह बहुत सुंदर दिखाई दे रहा है। इतनी देर में एक सेठ पास आया और आते ही कहा. ''क्यों फूल बेचने की इच्छा है ?'' आज हम आपको इसके दो चांदी के रूपए दे सकते हैं। अब उसने सोचा ...कि एक-दो आने के फूल के दो रुपए दिए जा रहे हैं। वह आश्चर्य में पड़ गया। इतनी देर में नगर-सेठ आया । उसने कहा ''भई, फूल बहुत अच्छा है, यह फूल हमें दे दो'' हम इसके दस चांदी के सिक्के दे सकते हैं। मोची ने सोचा, इतना कीमती है यह फूल। नगर सेठ ने मोची को सोच मे पड़े देख कर कहा कि अगर पैसे कम हों, तो ज्यादा दिए जा सकते हैं।
मोची ने सोचा-क्या बहुत कीमती है ये फूल?
नगर सेठ ने कहा-मेरी इच्छा है कि मैं महात्मा के चरणों में यह फूल रखूं। इसलिए इसकी कीमत लगाने लगा हूं। इतनी देर में उस राज्य का मंत्री अपने वाहन पर बैठा हुआ पास आ गया और कहता है- क्या बात है? कैसी भीड़ लगी हुई है? अब लोग कुछ बताते इससे पहले ही उसका ध्यान उस फूल की तरफ गया। उसने पूछा- यह फूल बेचोगे? हम इस के सौ सिक्के दे सकते हैं। क्योंकि महात्मा आए हुए हैं। ये सिक्के तो कोई कीमत नहीं रखते। जब हम यह फूल लेकर जाएगे तो सारे गांव में चर्चा तो होगी कि महात्मा ने केवल मंत्री का भेंट किया हुआ ही फूल स्वीकार किया। हमारी बहुत ज्यादा चर्चा होगी।
इसलिए हमारी इच्छा है कि यह फूल हम भेंट करें और कहते हैं कि थोड़ी देर के बाद राजा ने भीड़ को देखा, देखने के बाद वजीर ने पूछा कि बात क्या है? वजीर ने बताया कि फूल का सौदा चल रहा है। राजा ने देखते ही कहा-इसको हमारी तरफसे एक हजार चांदी के सिक्के भेंट करना। यह फूल हम लेना चाहते हैं। गरीब मोची ने कहा-लोगे तो तभी जब हम बेचेंगे। हम बेचना ही नहीं चाहते। अब राजा कहता है कि...बेचोगे क्यों नहीं? उसने कहा कि जब महात्मा के चरणों में सब कुछ-न-कुछ भेंट करने के लिए पहुंच रहे हैं..तो ये फूल इस गरीब की तरफ से आज उनके चरणों में भेंट होगा। राजा बोला-देख लो, एक हजार चांदी के सिक्कों से तुम्हारी पीढ़ियां तर सकती हैं।गरीब मोची कहा- मैंने तो आज तक राजाओं की सम्पत्ति से किसी को तरते नहीं देखा लेकिन महान पुरुषों के आशीर्वाद से तो लोगों को जरूर तरते देखा है। राजा मुस्कुराया और कह उठा-तेरी बात में दम है। तेरी मर्जी, तू ही भेंट कर ले।अब राजा तो उस उद्यान में चला गया जहां महात्मा ठहरे हुए थे...और बहुत जल्दी चर्चा महात्मा के कानों तक भी पहुंच गई, कि आज कोई आदमी फूल लेकर आ रहा है..
जिसकी कीमत बहुत लगी है। वह गरीब आदमी है इसलिए फूल बेचने निकला था कि उसका गुजारा होता। जैसे ही वह गरीब मोची फूल लेकर पहुंचा, तो शिष्यों ने महात्मा से कहा कि वह व्यक्ति आ गया है। लोग एकदम सामने से हट गए। महात्मा ने उसकी तरफ देखा। मोची फूल लेकर जैसे पहुंचा तो उसकी आंखों में से आंसू बरसने लगे। कुछ बूंदे तो पानी की कमल पर पहले से ही थी...कुछ उसके आंसुओं के रूप में ठिठक गई कमल पर।
रोते हुए इसने कहा-सब ने बहुत-बहुत कीमती चीजेें आपके चरणों में भेंट की होंगी, लेकिन इस गरीब के पास यह कमल का फूल और जन्म-जन्मान्तरों के पाप जो पाप मैंने किए हैं उनके आंसू आंखों में भरे पड़े हैं। उनको आज आपके चरणों में चढ़ाने आया हूं। मेरा ये फूल और मेरे आंसू भी स्वीकार करो। महात्मा के चरणों में फूल रख दिया। गरीब मोची घुटनों के बल बैठ गया।महात्मा बुध्द ने अपने शिष्य आनन्द को बुलाया और कहा, देख रहे हो आनन्द.। हजारों साल में भी कोई राजा इतना नहीं कमा पाया जितना इस गरीब इन्सान ने आज एक पल में ही कमा लिया।

श्रद्धा

एक बार गुरुजी सत्संग करके आ रहे थे।रास्ते में गुरुजी का मन चाय पीने को हुआ। उन्होंने अपने ड्राइवर को कहा-“महापुरुषों, हमे चाय पीनी है।” ड्राइवर गाड़ी 5 स्टार होटल के आगे खड़ी कर दी। गुरुजी ने कहा- “नहीं आगे चलो यहाँ नहीं।” फिर ड्राइवर ने गाड़ी किसी होटल के आगे खड़ी कर दी। गुरूजी ने वह भी मना कर दिया।काफी आगे जाकर एक छोटी सी ढाबे जैसी एक दुकान आई। गुरूजी ने कहा- “यहाँ रोक दो। यहाँ पर पीते हैं चाय।” ड्राइवर सोचने लगा कि अच्छे से अच्छे होटल को छोड़ कर गुरुजी ऐसी जगह चाय पीएंगे। खैर वो कुछ नहीं बोला। ड्राइवर चाय वाले के पास गया और बोला-“अच्छी सी चाय बना दो।”

जब दुकानदार ने पैसों वाला गल्ला खोला तो उसमे गुरूजी का सरूप फोटो लगा हुआ था।गुरूजी का सरूप देख कर ड्राइवर ने दुकानदार से पूछा-“तुम इन्हें जानते हो, कभी देखा है इन्हें?”तो दुकानदार ने कहा-
“मैंने इनको देखने जाने के लिए पैसे इकठे किये थे। जो कि चोरी हो गए, और मैं नहीं जा पाया।पर मुझे यकीन है कि गुरूजी मुझे यही आ कर मिलेंगे।”तो ड्राइवर ने कहा-“जाओ और चाय उस कार मैं दे कर आओ।”तो दुकानदार ने बोला-“अगर मैं चाय देने के लिए चला गया तो कहीं फिर से मेरे पैसे चोरी न हो जायें।” तो ड्राइवर ने कहा-“चिंता मत करो अगर ऐसा हुआ तो मैं तुम्हारे पैसे अपनी जेब से दूंगा।”*

दुकानदार चाय कार मैं देने के लिए चला गया।

जब वहां उसने गुरुजी के देखा तो हैरान हो गया।

आँखों में आंसू देखे तो गुरू जी ने कहा-“तूने कहा था कि मैं तुम्हे यहीं मिलने आऊं और अब मैं तुमको मिलने आया हूँ तो तुम रो रहे हो।”उस आदमी के अन्दर आंसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे।

Friday, January 26, 2018

विद्वता का घमंड

एक समय की बात है ।कालिदास बोले :- माते पानी पिला दीजिए बङा पुण्य होगा.स्त्री बोली :- बेटा मैं तुम्हें जानती नहीं. अपना परिचय दो।  मैं अवश्य पानी पिला दूंगी। कालिदास ने कहा :- मैं मेहमान हूँ, कृपया पानी पिला दें।स्त्री बोली :- तुम मेहमान कैसे हो सकते हो ? संसार में दो ही मेहमान हैं। पहला धन और दूसरा यौवन। इन्हें जाने में समय नहीं लगता। सत्य बताओ कौन हो तुम ?

(अब तक के सारे तर्क से पराजित हताश तो हो ही चुके थे)

कालिदास बोले :- मैं सहनशील हूं। अब आप पानी पिला दें।स्त्री ने कहा :- नहीं, सहनशील तो दो ही हैं । पहली, धरती जो पापी-पुण्यात्मा सबका बोझ सहती है। उसकी छाती चीरकर बीज बो देने से भी अनाज के भंडार देती है, दूसरे पेड़ जिनको पत्थर मारो फिर भी मीठे फल देते हैं । तुम सहनशील नहीं। सच बताओ तुम कौन हो ?

(कालिदास लगभग मूर्च्छा की स्थिति में आ गए और तर्क-वितर्क से झल्लाकर बोले)

कालिदास बोले :- मैं हठी हूँ ।स्त्री बोली :- फिर असत्य. हठी तो दो ही हैं- पहला नख और दूसरे केश, कितना भी काटो बार-बार निकल आते हैं। सत्य कहें ब्राह्मण कौन हैं आप ?

(पूरी तरह अपमानित और पराजित हो चुके थे)

कालिदास ने कहा :- फिर तो मैं मूर्ख ही हूँ ।स्त्री ने कहा :- नहीं तुम मूर्ख कैसे हो सकते हो। मूर्ख दो ही हैं। पहला राजा जो बिना योग्यता के भी सब पर शासन करता है, और दूसरा दरबारी पंडित जो राजा को प्रसन्न करने के लिए ग़लत बात पर भी तर्क करके उसको सही सिद्ध करने की चेष्टा करता है।

(कुछ बोल न सकने की स्थिति में कालिदास वृद्धा के पैर पर गिर पड़े और पानी की याचना में गिड़गिड़ाने लगे)

वृद्धा ने कहा :- उठो वत्स ! (आवाज़ सुनकर कालिदास ने ऊपर देखा तो साक्षात माता सरस्वती वहां खड़ी थी, कालिदास पुनः नतमस्तक हो गए) माता ने कहा :- शिक्षा से ज्ञान आता है न कि अहंकार । तूने शिक्षा के बल पर प्राप्त मान और प्रतिष्ठा को ही अपनी उपलब्धि मान लिया और अहंकार कर बैठे इसलिए मुझे तुम्हारे चक्षु खोलने के लिए ये स्वांग करना पड़ा। कालिदास को अपनी गलती समझ में आ गई और भरपेट पानी पीकर वे आगे चल पड़े।

Saturday, January 20, 2018

दान पुण्य की महिमा

एक समय की बात है. धन-ऐवर्श्य से भरपूर सुख-सुविधाओं से सुसज्जित एक धनवान परिवार में चार भाई थे। घर का मुखिया उनका पिता अपने चारों पुत्रों के व्यवहार से अत्यधिक प्रसन्न था। सब लोग परस्पर प्रेमपूर्ण व्यवहार करते थे। पिता की सद्आज्ञाओं का पालन और मां की भावनाओं का हृदय से सम्मान करना उनकी खास आदतों में शुमार था। इस व्यापारी परिवार में बडे तीन भाई विवाहित थे, तीनों की धर्म पत्नियां भी अत्यंत सेवाभावी थीं, सब लोग एक साथ बैठकर भोजन करते थे, घर में किसी भी तरह से एकता का अभाव नहीं था।समय के अनुसार व्यापारी सेठ के चौथे पुत्र की शादी भी धूमधाम से सम्पन्न हुई। नई-नवेली दुल्हन एक खुशहाल परिवार में बहुत बन ठन कर आई, सबने उसका खूब स्वागत किया। बहू को आए अभी पांच ही दिन हुए थे कि उसने देखा-इस बडे घर के द्वार पर भिखारी आता है मन में आस लेकर, लेकिन जब कोई उसकी आवाज नहीं सुनता तो चला जाता है निराश होकर। छठे दिन बहू नीचे वाले कमरे में बैठी हुई थी। सुबह का समय था, सेठ जी नियमित रूप से दो घंटे तक पूजा किया करते थे, प्रतिदिन की तरह वे अपने पूजा-पाठ के कार्यक्रम में संलग्न थे।
तभी उनके द्वार पर एक भिखारी आया। उसने अलख जगाई, भगवान के नाम पर कुछ दे दो मेरे दाता। आज इस नई-नवेली दुल्हन से रहा नहीं गया, उसने प्यार से, मगर ऊंची आवाज से कहा-बाबा चले जाओ यहां से, यहां तो सब बासी खाना खाते हैं, ताजा भोजन यहां नहीं बनता, देने के लिए यहां कुछ भी नहीं है। थोड़े-थोड़े समय के अंतराल पर दो-तीन याचक और आए, उन्होंने भी अलख जगाई, बहू ने उन्हें भी यही जबाव दिया। सेठ जी पूजा घर में सब कुछ सुन रहे थे। उन्हें बडा दु:ख हुआ कि बहू को क्या यहां ताजा भोजन नहीं मिलता अगर ऐसा है तो बड़ा अनर्थ हुआ है। थोड़ी देर बाद सेठ जी से कोई मिलने आया, उसने आवाज दी कि सेठ जी घर में हैं क्या? और अन्य तो कोई बोला नहीं, छोटी बहू ने झट से कहा- सेठ जी दुकान गए हैं। फिर कोई मिलने वाला आया तो बहू ने कहा- सेठ जी बैंक गए हैं, फिर कोई व्यक्ति किसी काम से आया तो बहू ने कहा- सेठ जी कारखाने गए हैं। सेठ जी यह सब सुनकर बहुत आश्चर्यचकित हुए कि बहू ने ऐसा व्यवहार क्यों किया? मैं तो यहीं पर हूं और यह सबको झूठ बोल रही है।
प्रतिदिन की तरह सायं को सभी घर के सदस्य खाने की टेबल पर इकट्ठे हुए। चारों पुत्र, चारों पुत्र वधुएं, सेठ-सेठानी। भोजन रुचिकर बनाने की परम्परा सेठजी के घर में लम्बे समय से चली आ रही थी, नौकर-चाकर भोजन बनाते थे और प्रेमपूर्वक सब मिल-जुलकर ही खाते थे। किन्तु भोजन की शुरूआत सेठ जी से ही होती थी। सारे व्यंजन मेज पर सजाए गए, गर्म-गर्म पूड़ियां आती रहीं, लेकिन आज सेठजी ने भोजन प्रारंभ नहीं किया। सब लोग अपने-अपने हिसाब से सोच रहे हैं, डर रहे हैं कि आज पता नहीं क्या बात है, पिता जी भोजन क्यों नहीं ग्रहण कर रहे हैं? काफी देर बाद सेठ जी ने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए छोटी बहू से पूछा, बेटी तुम्हें घर में कोई परेशानी है, कोई तकलीफ है, या यहां तुम्हारे मान-सम्मान में कोई कमी है? छोटी बहू भी सबकी तरह सहमी हुई थी, उसने अपनी नजर नीची रखते हुए कहा पिताजी? मैं यहां खुश हूं। सभी लोग मेरा बहुत ख्याल रखते हैं। मुझे प्यार करते हैं, सभी मेरे लिए देवतुल्य हैं, यह तो मेरा सौभाग्य है कि मैं आपके घर की बहू बन पाई।
सेठजी ने कहा- तुम हमारी बेटी के समान हो, अगर तुम्हें कोई तकलीफ हो तो नि:संकोच होकर कहो, बहू ने अपने ससुर के चरण छूकर कहा कि मुझे यहां कोई परेशानी नहीं है, कृपया भोजन ग्रहण कीजिए, सास माता ने बहू के सुर में सुर मिलाते हुए कहा- आप भोजन करो- यह सब ठण्डा हुआ जा रहा है।
सेठ जी बहू के जवाब से संतुष्ट नहीं थे, उनके कानों में तो प्रात:काल वाली आवाजें गूंज रही थीं, कि सेठ जी बैंक गए हैं, कारखाने गए हैं, दुकान पर गए हैं, हमारे यहां खाना बासी होता है आदि। सेठ जी ने पुन: प्यार से कहा- बेटी। जब तुम्हें यहां कोई तकलीफ नहीं है तो तुमने सुबह भिखारी को यह क्यों कहा कि यहां तो सब बासी खाना खाते हैं, ताजा तो बनता ही नहीं और यह क्यों कहा कि सेठ जी बैंक गए हैं, दुकान गए हैं, कारखाने गए हैं।
छोटी बहु सुप्रिया विनम्रता से बोली पिताजी। मैं क्षमा चाहती हूं, किन्तु मैं पिछले पांच दिनों से सुनती-देखती आ रही हूं कि हमारे द्वार से भिखारी रोज खाली हाथ लौटकर जाते हैं, दान-पुण्य करते हुए कोई नजर नहीं आ रहा है, हम किसी जरूरतमंद को भोजन कराए बिना ही भोजन करते हैं। पिताजी यह तो हमारे पूर्व जन्मों का पुण्य है कि हम खुशहाल हैं, किन्तु नए पुण्य तो हम अर्जित कर ही नहीं रहे, हम पूर्व में किए बासी पुण्य कर्मों के सुख भोग रहे हैं, नए करेंगे तो उनका फल ताजा होगा। सेठ जी को ये जागृति के वचन बहुत सुहाए, उन्होंने तुरन्त कहा- बेटी तुम ठीक कहती हो, कल से क्या। आज से ही हम दान-पुण्य करके भोजन ग्रहण करेंगे।
सेठ जी ने कहा- पर बेटी तुम यह तो बताओ कि तुमने ऐसा क्यों कहा कि सेठ जी बैंक गए हैं, दुकान पर गए हैं, कारखाने में गए हैं। बहू ने कहा- पिताजी। आप पूजाघर में थे, लेकिन सच बताना जब मैंने यह कहा कि आप बैंक गए हैं तब आपका मन पूजा में था या बैंक में, जब मैंने दुकान पर गए हैं कहा तो आपका मन उस समय कहां था? जब मैंने कारखाने की बात कही तब क्या आप अपने मजदूरों के वेतन की बात नहीं सोच रहे थे? छोटी बहू के द्वारा ऐसा सुनकर सेठजी की आंखों में प्रेम के आंसू आ गए, और बहू का भी गला रुंध सा गया। सेठ जी ने बहू से कहा- बेटी तुम्हारी सारी बातें सही हैं, तुम केवल बहू बनकर हमारे घर नहीं आई बल्कि सौभाग्य लक्ष्मी बनकर हमारे घर में पधारी हो। तुमने हमारी आंखें खोलीं, हमें जगाया हम तेरे बहुत शुक्रगुजार हैं। प्रतिदिन दान-पुण्य जरूर करेंगे, भगवान की भक्ति मन से करेंगे।