Friday, December 15, 2017

सेवा का मोल

 एक समय की बात है. एक गरीब आदमी था। वो हर रोज अपने गुरु के आश्रम जाकर वहां साफ-सफाई करता और फिर अपने काम पर चला जाता था। अक्सर वो अपने गुरु से कहता कि आप मुझे आशीर्वाद दीजिए तो मेरे पास ढेर सारा धन-दौलत आ जाए। एक दिन गुरु ने पूछ ही लिया कि क्या तुम आश्रम में इसीलिए काम करने आते हो। उसने पूरी ईमानदारी से कहा कि हां, मेरा उद्देश्य तो यही है कि मेरे पास ढेर सारा धन आ जाए, इसीलिए तो आपके दरशन करने आता हूं। पटरी पर सामान लगाकर बेचता हूं। पता नहीं, मेरे सुख के दिन कब आएंगे। गुरु ने कहा कि तुम चिंता मत करो। जब तुम्हारे सामने अवसर आएगा तब ऊपर वाला तुम्हें आवाज थोड़ी लगाएगा। बस, चुपचाप तुम्हारे सामने अवसर खोलता जाएगा। युवक चला गया। समय ने पलटा खाया, वो अधिक धन कमाने लगा। इतना व्यस्त हो गया कि आश्रम में जाना ही छूट गया।  कई वर्षों बाद वह एक दिन सुबह ही आश्रम पहुंचा और साफ-सफाई करने लगा। गुरु ने बड़े ही आश्चर्य से पूछा--क्या बात है, इतने बरसों बाद आए हो, सुना है बहुत बड़े सेठ बन गए हो। वो व्यक्ति बोला--बहुत धन कमाया। अच्छे घरों में बच्चों की शादियां की, पैसे की कोई कमी नहीं है पर दिल में चैन नहीं है। ऐसा लगता था रोज सेवा करने आता रहूं पर आ ना सका। गुरुजी, आपने मुझे सब कुछ दिया पर जिंदगी का चैन नहीं दिया। गुरु ने कहा कि तुमने वह मांगा ही कब था?  जो तुमने मांगा वो तो तुम्हें मिल गया ना।  फिर आज यहां क्या करने आए हो ? उसकी आंखों में आंसू भर आए, गुरु के चरणों में गिर पड़ा और बोला --अब कुछ मांगने के लिए सेवा नहीं करूंगा। बस दिल को शान्ति मिल जाए। गुरु ने कहा--पहले तय कर लो कि अब कुछ मागने के लिए आश्रम की सेवा नहीं करोगे, बस मन की शांति के लिए ही आओगे। गुरु ने समझाया कि चाहे मांगने से कुछ भी मिल जाए पर दिल का चैन कभी नहीं मिलता इसलिए सेवा के बदले कुछ मांगना नहीं है। वो व्यक्ति बड़ा ही उदास होकर  गुरु को देखता रहा और बोला--मुझे कुछ नहीं चाहिए। आप बस, मुझे सेवा करने दीजिए। सच में, मन की शांति सबसे अनमोल है।।

Thursday, December 14, 2017

स्वीकारता

 एक समय की बात है..एक दिन गुरु नानकदेव अकेले बैठे हुए थे। एक डाकू उनके पास आया और उनके चरणों में गिरकर कहने लगा- 'मैं डाकू हूँ, अपने जीवन से परेशान हूँ, अपने को सुधारना चाहता हूँ। इन पापों से, जो मैं रोज करता हूँ, मुक्ति चाहता हूँ। मुझे कोई उपाय बताइये। मेरा मार्गदर्शन कीजिये।' नानकदेव पहले तो उस डाकू के हाव-भाव देखते रहे, फिर बोले- 'तुम आज से डाका डालना और झूठ बोलना छोड दो, सब ठीक हो जायेगा।' डाकू उन्हें प्रणाम करके लौट गया। लेकिन कुछ दिन के बाद फिर आया और कहने लगा-'मैंने झूठ न बोलने और डाका न डालने की भरसक कोशिश की मगर इन आदतों को छोड़ नहीं पाता। लेकिन मैं सुधरना अवश्य चाहता हूँ। आप मुझे कोई उपाय बताइये।' और वह उनके चरणों में गिर पड़ा। गुरुजी पुन: सोच में पड़ गये फिर उनके होठों पर मुस्कान आयी। वे डाकू से बोले- 'अच्छा, जो तुम्हारे मन में आये करो लेकिन दिनभर झूठ बोलने, डाका डालने के बाद प्रतिदिन लोगों के सामने अपने इन सब कामों का बखान कर दो।' डाकू को यह उपाय बहुत आसान मालूम हुआ। वह प्रणाम करके चला गया। इस बार बहुत दिन बीत गये डाकू लौटकर नहीं आया। फिर एक दिन जब गुरुजी ध्यानमग्न थे, अचानक वह उनके सामने आ खड़ा हुआ। गुरुजी ने जब उसे पास खड़े देखा, तो पूछा-'बहुत दिनों के बाद लौटे हो।' डाकू बोला- 'मैं आपके बताये उस उपाय को बहुत आसान समझता था, लेकिन वह तो बहुत कठिन निकला। लोगों के सामने अपनी बुराइयां कहने में तो लाज आती है, सो मैंने बुरे काम करना ही छोड़ दिया है।'   ज़िन्दगी में बुरे अथवा गलत काम करना जितना आसान होता है उससे कही ज्यादा मुश्किल उन्हें स्वीकार करते हुए जीने में होता है।

Monday, December 11, 2017

कामना का बीज

 हिरण्यकशिपु के वधके पश्चात् भगवान नृसिंह ने भकित-शिरोमणि प्रहलाद से वरदान माँगने का अनुरोध किया. प्रहलाद के अस्वीकार करने पर भी वे बार-बार माँगने का आग्रह करते ही रहे. किन्तु इस आग्रह से प्रहलाद उदास हो गए। यद्यपि भगवान प्रसन्नता प्रगट करते हुए उनसे माँगने का आग्रह कर रहे थे, किन्तु उन्हें भगवान की इस प्रसन्नता में अपने अभाव का अनुभव हो रहा था। उन्होंने सोचा, अवश्य कहीं न कहीं मेरे अन्तःकरण में कामना का बीज विद्यमान है. भले ही मैं उसे नहीं देख पा रहा हूँ ; किन्तु अन्तर्यामी प्रभु उसे जानकर उसकी पूर्ति का आग्रह कर रहे हैं। और तब उन्होंने प्रभु से यही प्रार्थना की कि आप प्रसन्न हैं तो मेरे अन्तर्मन में छिपी हुई कामना को सर्वथा विनष्ट कर दीजिए।

Sunday, December 10, 2017

अनमोल भक्ति

एक समय की बात है. एक फकीर जो एक वृक्ष के नीचे ध्यान कर रहा था, रोज एक लकड़हारे को लकड़ी काटते ले जाते देखता था। एक दिन उससे कहा कि सुन भाई, दिन— भर लकड़ी काटता है, दो जून रोटी भी नहीं जुट पाती। तू जरा आगे क्यों नहीं जाता। वहां आगे चंदन का जंगल है। एक दिन काट लेगा, सात दिन के खाने के लिए काफी हो जाएगा। गरीब लकड़हारे को भरोसा तो नहीं आया, क्योंकि वह तो सोचता था कि जंगल को जितना वह जानता है और कौन जानता है! जंगल में ही तो जिंदगी बीती। लकड़ियां काटते ही तो जिंदगी बीती।  फिर भी उसने सोचा की  एक बार प्रयोग करके देख लेना जरूरी है। वो  गया। लौटा फकीर के चरणों में सिर रखा और कहा कि मुझे क्षमा करना, मेरे मन में बड़ा संदेह आया था, क्योंकि मैं तो सोचता था कि मुझसे ज्यादा लकड़ियां कौन जानता है। मगर मुझे चंदन की पहचान ही न थी।  मैं भी कैसा अभागा! काश, पहले पता चल जाता! फकीर ने कहा कोई फिक्र न करो, जब पता चला तभी जल्दी है।दिन बड़े मजे में कटने लगे। एक दिन काट लेता, सात— आठ दिन, दस दिन जंगल आने की जरूरत ही न रहती। एक दिन फकीर ने कहा; मेरे भाई, मैं सोचता था कि तुम्हें कुछ अक्ल आएगी। जिंदगी— भर तुम लकड़ियां काटते रहे, आगे न गए; तुम्हें कभी यह सवाल नहीं उठा कि इस चंदन के आगे भी कुछ हो सकता है? उसने कहा; यह तो मुझे सवाल ही न आया। क्या चंदन के आगे भी कुछ है? उस फकीर ने कहा : चंदन के जरा आगे जाओ तो वहां चांदी की खदान है। लकडिया—वकडिया काटना छोड़ो। एक दिन ले आओगे, दो—चार छ: महीने के लिए हो गया। अब तो भरोसा आया था। भागा। संदेह भी न उठाया। चांदी पर हाथ लग गए, तो कहना ही क्या! चांदी ही चांदी थी! चार—छ: महीने नदारद हो जाता। एक दिन आ जाता, फिर नदारद हो जाता। लेकिन आदमी का मन ऐसा मूढ़ है कि फिर भी उसे खयाल न आया कि और आगे कुछ हो सकता है। फकीर ने एक दिन कहा कि तुम कभी जागोगे कि नहीं, कि मुझी को तुम्हें जगाना पड़ेगा। आगे सोने की खदान है मूर्ख! तुझे खुद अपनी तरफ से सवाल, जिज्ञासा, मुमुक्षा कुछ नहीं उठती कि जरा और आगे देख लूं? अब छह महीने मस्त पड़ा रहता है, घर में कुछ काम भी नहीं है, फुरसत है। जरा जंगल में आगे देखकर देखूं यह खयाल में नहीं आता? उसने कहा कि मैं भी मंदभागी, मुझे यह खयाल ही न आया, मैं तो समझा चांदी, बस आखिरी बात हो गई, अब और क्या होगा? गरीब ने सोना तो कभी देखा न था, सुना था। फकीर ने कहा : थोड़ा और आगे सोने की खदान है। और ऐसे कहानी चलती है। फिर और आगे हीरों की खदान है। और ऐसे कहानी चलती है। और एक दिन फकीर ने कहा कि नासमझ, अब तू हीरों पर ही रुक गया? अब तो उस लकड़हारे को भी बडी अकड़ आ गई, बड़ा धनी भी हो गया था, महल खड़े कर लिए थे। उसने कहा अब छोड़ो, अब तुम मुझे परेशांन न करो। अब हीरों के आगे क्या हो सकता है?

उस फकीर ने कहा. हीरों के आगे मैं हूं। तुझे यह कभी खयाल नहीं आया कि यह आदमी मस्त यहां बैठा है, जिसे पता है हीरों की खदान का, वह हीरे नहीं भर रहा है, इसको जरूर कुछ और आगे मिल गया होगा! हीरों से भी आगे इसके पास कुछ होगा, तुझे कभी यह सवाल नहीं उठा?रोने लगा वह आदमी। सिर पटक दिया चरणों पर। कहा कि मैं कैसा मूढ़ हूं मुझे यह सवाल ही नहीं आता। तुम जब बताते हो, तब मुझे याद आता है। यह तो मेरे जन्मों—जन्मों में नहीं आ सकता था खयाल कि तुम्हारे पास हीरों से भी बड़ा कोई धन है।
फकीर ने कहा : उसी धन का नाम  भक्ति  है।

राजा की चाह

एक समय की बात है .एक राजा ने यह ऐलान करवा दिया  कि कल सुबह जब मेरे महल का मुख्य दरवाज़ा खोला जायेगा तब जिस ख़्स ने भी महल में जिस चीज़ को हाथ लगा दिया वह चीज़ उसकी हो जाएगी। इस ऐलान को सुनकर सब लोग आपस में बातचीत करने लगे कि मैं तो सबसे क़िमती चीज़ को हाथ लगाऊंगा। तो कुछ लोग कहने लगे मैं तो सोने को थ लगाऊंगा, कुछ लोग चादी को तो कुछ लोग कीमती जेवरात को, कुछ लोग घोड़ों को तो कुछ लोग हाथी को,  छ लोग दुधारू गाय को हाथ लगाने की बात कर रहे थे। जब सुबह महल का मुख्य दरवाजा खुला और सब लोग अपनी अपनी मनपसंद चीज़ों के लिये दौड़ने लगे। सबको इस बात की जल्दी थी कि पहले मैं अपनी मनपसंद चीज़ों को हाथ लगा दूँ ताकि वह चीज़ हमेशा के लिए मेरी हो जाऐ। राजा अपनी जगह पर बैठा सबको देख रहा था और अपने आस-पास हो रही भाग दौड़ को देखकर मुस्कुरा रहा था। उसी समय उस भीड़ में से एक शख्स राजा की तरफ बढ़ने लगा और धीरे-धीरे चलता हुआ राजा के पास पहुँच कर उसने राजा को छु लिया।राजा को हाथ लगाते ही राजा उसका हो गया और राजा की हर चीज भी उसकी हो गयी।

Wednesday, December 6, 2017

ईश्वर का न्याय

एक समय की बात है. एक रोज एक महात्मा अपने शिष्य के साथ भ्रमण पर निकले।   चलते हुए जब वो तालाब से होकर गुजर रहे थे, तो उन्होंने देखा कि एक धीवर नदी में जाल डाले हुए है। शिष्य यह सब देख खड़ा हो गया और धीवर को ‘अहिंसा परमोधर्म’ का उपदेश देने लगा। लेकिन धीवर कहाँ समझने वाला था, पहले उसने टालमटोल करनी चाही और बात जब बहुत बढ़ गयी तो शिष्य और धीवर के बीच झगड़ा शुरू हो गया। यह झगड़ा देख गुरूजी जो उनसे बहुत आगे बढ़ गए थे, लौटे और शिष्य को अपने साथ चलने को कहा एवं शिष्य को पकड़कर ले चले।
गुरूजी ने अपने शिष्य से कहा- “बेटा हम जैसे साधुओं का काम सिर्फ समझाना है, लेकिन ईश्वर ने हमें दंड देने के लिए धरती पर नहीं भेजा है!”  शिष्य ने पुछा- “महाराज! को तो बहुत से दण्डों के बारे में पता ही नही है और हमारे राज्य के राजा तो बहुतों को दण्ड ही नहीं देते हैं। तो आखिर इसको दण्ड कौन देगा?”
शिष्य की इस बात का जवाब देते हुए गुरूजी ने कहा- “बेटा! तुम निश्चिंत रहो इसे भी दण्ड देने वाली एक अलौकिक शक्ति इस दुनिया में मौजूद है जिसकी पहुँच सभी जगह है… ईश्वर की दृष्टि सब तरफ है और वो सब जगह पहुँच जाते हैं। इसलिए अभी तुम चलो, इस झगड़े में पड़ना गलत होगा, इसलिए इस झगड़े से दूर रहो।”
शिष्य गुरुजी की बात सुनकर संतुष्ट हो गया और उनके साथ चल दिया। इस बात के दो वर्ष बाद एक दिन गुरूजी और शिष्य दोनों उसी तालाब से होकर गुजरे, शिष्य अब दो साल पहले की वह धीवर वाली घटना भूल चुका था। उन्होंने उसी तालाब के पास देखा कि एक घायल साँप बहुत कष्ट में था उसे हजारों चीटियाँ नोच-नोच कर खा रही थीं। शिष्य ने यह दृश्य देखा और उससे रहा नहीं गया, दया से उसका ह्रदय पिघल गया था। वह सर्प को चींटियों से बचाने के लिए जाने ही वाला था कि गुरूजी ने उसके हाथ पकड़ लिए और उसे जाने से मना करते हुए कहा-“ बेटा! इसे अपने कर्मों का फल भोगने दो। यदि अभी तुमने इसे बचाया तो इस बेचारे को फिर से दुसरे जन्म में यह दुःख भोगने होंगे क्योंकि कर्म का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है।
शिष्य ने गुरूजी से पुछा- “गुरूजी इसने ऐसा कौन-सा कर्म किया है जो इस दुर्दशा में यह फँसा है?”
गुरू महाराज बोले- “यह वही धीवर है जिसे तुम पिछले वर्ष इसी स्थान पर मछली न मारने का उपदेश दे रहे थे और वह तुम्हारे साथ लड़ने के लिए आग-बबूला हुआ जा रहा था। वे मछलियाँ ही चींटीयाँ है जो इसे नोच-नोचकर खा रही है।”
यह सुनते ही बड़े आश्चर्य से शिष्य ने कहा- गुरूजी, यह तो बड़ा ही विचित्र न्याय है।”
शिष्य बोला- “गुरुदेव तो क्या अगर कोई दुर्दशा में पडा हो तो उसे उसका कर्म मान कर उसकी मदद नहीं करनी चाहिए?”  गुरुजी बोले- “करनी चाहिए, अवश्य करनी चाहिए। यहाँ पर तो मैने तुम्हें इसलिए रोक दिया क्योंकि मुझे पता था कि वह किस कर्म को भुगत रहा है। साथ ही मुझे तुमको ईश्वर के न्याय का नमूना भी दिखाना था। लेकिन अगर मै यह सब नहीं जानता तो उसकी मदद न करना मेरा पाप होता, इसलिए तब मै भी अवश्य उसकी मदद करता।“
शिष्य गुरुजी की बात स्पष्ट रूप से समझ चुका था।


पश्चाताप

एक समय की बात है. एक सूफी संत थे, बड़े ईश्वरभक्त। पांच दफे नमाज पढ़ने का उनका नियम था। एक रोज थके मांदे थे, सो गए। जब नमाज का वक्त आ गया तो किसी ने आकर उन्हें जगाया, हिलाकर कहा, उठो उठो, नमाज का वक्त हो गया है। वे तत्काल ही उठ बैठे और बड़े कृतज्ञ हुए, कहने लगे, भाई, तुमने मेरा बड़ा काम किया, मेरी इबादत रह जाती तो क्या होता! अच्छा अपना नाम तो बताओ। उस आदमी ने कहा, अब नाम रहने दो, उससे झंझट होगी। लेकिन संत ने कहा, कम से कम नाम तो जानूं र तुम्हें धन्यवाद तो दूं। तो उसने कहा, पूछते ही हो तो कह देता हूं मेरा नाम इबलीस है। इबलीस है शैतान का नाम। संत तो हैरान हुए, बोले, इबलीस? शैतान? अरे, तुम्हारा काम तो लोगों को इबादत से, धर्म से रोकना है, फिर तुम मुझे जगाने क्यों आए? यह बात तो बड़ी अटपटी है। सुनी नहीं, पढ़ी नहीं, न आंखों देखी, न कानों सुनी, शास्त्रों में कहीं उल्लेख नहीं कि इबलीस और किसी को जगाता हो कि उठो उठो, नमाज का वक्त हो गया। तुम्हें हो क्या गया है? क्या तुम्हारा दिल बदल गया है?

शैतान ने कहा, नहीं भैया, इसमें मेरा ही फायदा है। एक बार पहले भी तुम ऐसे ही सो गए थे; नमाज का वक्त बीत गया तो मैं बहुत खुश हुआ था, लेकिन जब तुम जागे तो इतना रोए, इतने दुखी हुए, इतने हृदय से तुमने ईश्वर को पुकारा और इतनी तुमने कसमें खायी कि अब कभी नहीं सोऊंगा, अब कभी भूल नहीं करूंगा, अब मुझे क्षमा कर दो। तब से वर्षों बीत गए हैं, तब से तुम सोए नहीं, तब से तुम नमाज ही नहीं चूके। अब मैंने देखा कि आज तुम फिर सो गए हो, अगर मैं तुम्हें न जगाऊं तो और कठिनाई होगी, तुम इससे भी कुछ पाठ लोगे। तो मैंने सोचा एक दफे नमाज पढ़ लो, वही ज्यादा ठीक है। उसमें मेरी कम हानि है। क्योंकि पिछली दफे तुम चूके, उससे तुम्हें जितना लाभ हुआ, उतना तुमने जितनी नमाजें जिंदगीभर की थीं उनसे भी न हुआ था।

Saturday, December 2, 2017

ईश्वर की इच्छा

एक समय की बात है. संत राबिया एक दिन बहुत बीमार हो गईं| एक साधक उनसे मिलने आया| राबिया की हालत देखकर उसे बड़ा दुख हुआ, पर कहे तो क्या कहे|  राबिया उसके मन की बात ताड़ गईं| उन्होंने कहा - "तुम कुछ कहना चाहते हो, कहो|" उस साधक ने कहा - "आप इतनी बीमार हो| ईश्वर से प्रार्थना करो, वह आपकी बीमारी को दूर कर देंगे|" राबिया उसकी बात सुनकर हंस पड़ीं| बोलीं - "क्या तुम्हें पता नहीं कि बीमारी किसकी इच्छा से होती है? क्या मेरी बीमारी में प्रभु का हाथ नहीं है?" साधक बोला - "आप ठीक कहती हैं| बिना उसकी इच्छा के कुछ भी नहीं हो सकता|"

"तब!" राबिया ने कहा - "तुम मुझसे कैसे कहते हो कि मैं उसकी इच्छा के खिलाफ बीमारी से छुटकारा पाने के लिए उससे प्रार्थना करूं? उसे जिस दिन ठीक करना होगा, अपने आप कर देगा|"

Friday, December 1, 2017

भक्ति प्रेम

एक गोपी यमुना किनारे बैठी प्राणायाम कर रही थी। तभी वहां नारद जी वीणा बजाते हुए आये,नारद जी बड़े ध्यान से देखने लगे गोपी कर क्या रही है क्योकि व्रज में कोई ध्यान लगाये ये बात उन्हें हजम ही नहीं हो रही थी बहुत देर तक विचार करते रहने पर भी उन्हें समझ नहीं आया तो वे गोपी के और निकट गए और गोपी से बोले,"देवी! ये आप क्या कर रही है, बहुत देर तक विचार करने पर भी मुझे समझ नहीं आ रहा क्योंकि व्रज में कोई ध्यान लगाये,वो भी इस तरह प्राणायाम आदि नियमों सहित ऐसा तो व्रज में कभी सुना नहीं फिर ऐसा क्या हो गया कि आपको ध्यान लगाने की आवश्यकता पड़ गई?" गोपी बोली,"नारद जी!मै जब भी कोई काम करती हूं तो कर नहीं पाती हर समय वो नंद का छोरा आंखों में बसा रहता है,घर लीपती हूं तो गोवर में वही दिखता है लीपना तो वही छूट जाता है और कृष्ण के ध्यान में ही डूब जाती हूं,रोटी बनाती हूं तो जैसे ही आटा गूदती हूं, तो नरम-नरम आटा में कृष्ण के कोमल चरणों का आभास होता है, आटा तो वैसा ही रखा रह जाता है और में कृष्ण की याद में खो जाती हूं, कहां तक बताऊ नारद जी, जल भरने यमुना जी जाती हूं तो यमुना जी में,जल की गागर में, रास्ते में, हर कहीं नंदलाला ही दिखायी देते हैं। मै इतना परेशान हो गई हूं कि कृष्ण को ध्यान से निकालने के लिए ध्यान लगाने बैठी हूं।" हमें तो भगवान को याद करना पड़ता है,भगवान को याद करने के लिए ध्यान लगाना पड़ता है,और गोपी को ध्यान से निकलने के लिए ध्यान में बैठना पड़ता है। गोपी की हर क्रिया में कृष्ण है, गोपी ने अपने ह्रदय में केवल कृष्ण को बैठा रखा है