Monday, January 29, 2018

श्रद्धा के फूल

एक बार किसी गांव में महात्मा बुध्द का आगमन हुआ। सब इस होड़ में लग गये कि क्या भेंट करें। इधर गावँ में एक गरीब मोची था। उसने देखा कि मेरे घर के बाहर के तालाब में बेमौसम का एक कमल खिला है। उसकी इच्छा हुई कि, आज नगर में महात्मा आए हैं, सब लोग तो उधर ही गए हैं, तो आज मेरा काम चलेगा नहीं, इसलिए आज लगता है कि यह फूल बेचकर ही गुजारा पड़ेगा । वह तालाब के अंदर कीचड़ में घुस गया। कमल के फूल को लेकर आया। केले के पत्ते का दोना बनाया..और उसके अंदर कमल का फूल रख दिया। पानी की कुछ बूंदें कमल पर पड़ी हुई हैं ..और वह बहुत सुंदर दिखाई दे रहा है। इतनी देर में एक सेठ पास आया और आते ही कहा. ''क्यों फूल बेचने की इच्छा है ?'' आज हम आपको इसके दो चांदी के रूपए दे सकते हैं। अब उसने सोचा ...कि एक-दो आने के फूल के दो रुपए दिए जा रहे हैं। वह आश्चर्य में पड़ गया। इतनी देर में नगर-सेठ आया । उसने कहा ''भई, फूल बहुत अच्छा है, यह फूल हमें दे दो'' हम इसके दस चांदी के सिक्के दे सकते हैं। मोची ने सोचा, इतना कीमती है यह फूल। नगर सेठ ने मोची को सोच मे पड़े देख कर कहा कि अगर पैसे कम हों, तो ज्यादा दिए जा सकते हैं।
मोची ने सोचा-क्या बहुत कीमती है ये फूल?
नगर सेठ ने कहा-मेरी इच्छा है कि मैं महात्मा के चरणों में यह फूल रखूं। इसलिए इसकी कीमत लगाने लगा हूं। इतनी देर में उस राज्य का मंत्री अपने वाहन पर बैठा हुआ पास आ गया और कहता है- क्या बात है? कैसी भीड़ लगी हुई है? अब लोग कुछ बताते इससे पहले ही उसका ध्यान उस फूल की तरफ गया। उसने पूछा- यह फूल बेचोगे? हम इस के सौ सिक्के दे सकते हैं। क्योंकि महात्मा आए हुए हैं। ये सिक्के तो कोई कीमत नहीं रखते। जब हम यह फूल लेकर जाएगे तो सारे गांव में चर्चा तो होगी कि महात्मा ने केवल मंत्री का भेंट किया हुआ ही फूल स्वीकार किया। हमारी बहुत ज्यादा चर्चा होगी।
इसलिए हमारी इच्छा है कि यह फूल हम भेंट करें और कहते हैं कि थोड़ी देर के बाद राजा ने भीड़ को देखा, देखने के बाद वजीर ने पूछा कि बात क्या है? वजीर ने बताया कि फूल का सौदा चल रहा है। राजा ने देखते ही कहा-इसको हमारी तरफसे एक हजार चांदी के सिक्के भेंट करना। यह फूल हम लेना चाहते हैं। गरीब मोची ने कहा-लोगे तो तभी जब हम बेचेंगे। हम बेचना ही नहीं चाहते। अब राजा कहता है कि...बेचोगे क्यों नहीं? उसने कहा कि जब महात्मा के चरणों में सब कुछ-न-कुछ भेंट करने के लिए पहुंच रहे हैं..तो ये फूल इस गरीब की तरफ से आज उनके चरणों में भेंट होगा। राजा बोला-देख लो, एक हजार चांदी के सिक्कों से तुम्हारी पीढ़ियां तर सकती हैं।गरीब मोची कहा- मैंने तो आज तक राजाओं की सम्पत्ति से किसी को तरते नहीं देखा लेकिन महान पुरुषों के आशीर्वाद से तो लोगों को जरूर तरते देखा है। राजा मुस्कुराया और कह उठा-तेरी बात में दम है। तेरी मर्जी, तू ही भेंट कर ले।अब राजा तो उस उद्यान में चला गया जहां महात्मा ठहरे हुए थे...और बहुत जल्दी चर्चा महात्मा के कानों तक भी पहुंच गई, कि आज कोई आदमी फूल लेकर आ रहा है..
जिसकी कीमत बहुत लगी है। वह गरीब आदमी है इसलिए फूल बेचने निकला था कि उसका गुजारा होता। जैसे ही वह गरीब मोची फूल लेकर पहुंचा, तो शिष्यों ने महात्मा से कहा कि वह व्यक्ति आ गया है। लोग एकदम सामने से हट गए। महात्मा ने उसकी तरफ देखा। मोची फूल लेकर जैसे पहुंचा तो उसकी आंखों में से आंसू बरसने लगे। कुछ बूंदे तो पानी की कमल पर पहले से ही थी...कुछ उसके आंसुओं के रूप में ठिठक गई कमल पर।
रोते हुए इसने कहा-सब ने बहुत-बहुत कीमती चीजेें आपके चरणों में भेंट की होंगी, लेकिन इस गरीब के पास यह कमल का फूल और जन्म-जन्मान्तरों के पाप जो पाप मैंने किए हैं उनके आंसू आंखों में भरे पड़े हैं। उनको आज आपके चरणों में चढ़ाने आया हूं। मेरा ये फूल और मेरे आंसू भी स्वीकार करो। महात्मा के चरणों में फूल रख दिया। गरीब मोची घुटनों के बल बैठ गया।महात्मा बुध्द ने अपने शिष्य आनन्द को बुलाया और कहा, देख रहे हो आनन्द.। हजारों साल में भी कोई राजा इतना नहीं कमा पाया जितना इस गरीब इन्सान ने आज एक पल में ही कमा लिया।

श्रद्धा

एक बार गुरुजी सत्संग करके आ रहे थे।रास्ते में गुरुजी का मन चाय पीने को हुआ। उन्होंने अपने ड्राइवर को कहा-“महापुरुषों, हमे चाय पीनी है।” ड्राइवर गाड़ी 5 स्टार होटल के आगे खड़ी कर दी। गुरुजी ने कहा- “नहीं आगे चलो यहाँ नहीं।” फिर ड्राइवर ने गाड़ी किसी होटल के आगे खड़ी कर दी। गुरूजी ने वह भी मना कर दिया।काफी आगे जाकर एक छोटी सी ढाबे जैसी एक दुकान आई। गुरूजी ने कहा- “यहाँ रोक दो। यहाँ पर पीते हैं चाय।” ड्राइवर सोचने लगा कि अच्छे से अच्छे होटल को छोड़ कर गुरुजी ऐसी जगह चाय पीएंगे। खैर वो कुछ नहीं बोला। ड्राइवर चाय वाले के पास गया और बोला-“अच्छी सी चाय बना दो।”

जब दुकानदार ने पैसों वाला गल्ला खोला तो उसमे गुरूजी का सरूप फोटो लगा हुआ था।गुरूजी का सरूप देख कर ड्राइवर ने दुकानदार से पूछा-“तुम इन्हें जानते हो, कभी देखा है इन्हें?”तो दुकानदार ने कहा-
“मैंने इनको देखने जाने के लिए पैसे इकठे किये थे। जो कि चोरी हो गए, और मैं नहीं जा पाया।पर मुझे यकीन है कि गुरूजी मुझे यही आ कर मिलेंगे।”तो ड्राइवर ने कहा-“जाओ और चाय उस कार मैं दे कर आओ।”तो दुकानदार ने बोला-“अगर मैं चाय देने के लिए चला गया तो कहीं फिर से मेरे पैसे चोरी न हो जायें।” तो ड्राइवर ने कहा-“चिंता मत करो अगर ऐसा हुआ तो मैं तुम्हारे पैसे अपनी जेब से दूंगा।”*

दुकानदार चाय कार मैं देने के लिए चला गया।

जब वहां उसने गुरुजी के देखा तो हैरान हो गया।

आँखों में आंसू देखे तो गुरू जी ने कहा-“तूने कहा था कि मैं तुम्हे यहीं मिलने आऊं और अब मैं तुमको मिलने आया हूँ तो तुम रो रहे हो।”उस आदमी के अन्दर आंसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे।

Friday, January 26, 2018

विद्वता का घमंड

एक समय की बात है ।कालिदास बोले :- माते पानी पिला दीजिए बङा पुण्य होगा.स्त्री बोली :- बेटा मैं तुम्हें जानती नहीं. अपना परिचय दो।  मैं अवश्य पानी पिला दूंगी। कालिदास ने कहा :- मैं मेहमान हूँ, कृपया पानी पिला दें।स्त्री बोली :- तुम मेहमान कैसे हो सकते हो ? संसार में दो ही मेहमान हैं। पहला धन और दूसरा यौवन। इन्हें जाने में समय नहीं लगता। सत्य बताओ कौन हो तुम ?

(अब तक के सारे तर्क से पराजित हताश तो हो ही चुके थे)

कालिदास बोले :- मैं सहनशील हूं। अब आप पानी पिला दें।स्त्री ने कहा :- नहीं, सहनशील तो दो ही हैं । पहली, धरती जो पापी-पुण्यात्मा सबका बोझ सहती है। उसकी छाती चीरकर बीज बो देने से भी अनाज के भंडार देती है, दूसरे पेड़ जिनको पत्थर मारो फिर भी मीठे फल देते हैं । तुम सहनशील नहीं। सच बताओ तुम कौन हो ?

(कालिदास लगभग मूर्च्छा की स्थिति में आ गए और तर्क-वितर्क से झल्लाकर बोले)

कालिदास बोले :- मैं हठी हूँ ।स्त्री बोली :- फिर असत्य. हठी तो दो ही हैं- पहला नख और दूसरे केश, कितना भी काटो बार-बार निकल आते हैं। सत्य कहें ब्राह्मण कौन हैं आप ?

(पूरी तरह अपमानित और पराजित हो चुके थे)

कालिदास ने कहा :- फिर तो मैं मूर्ख ही हूँ ।स्त्री ने कहा :- नहीं तुम मूर्ख कैसे हो सकते हो। मूर्ख दो ही हैं। पहला राजा जो बिना योग्यता के भी सब पर शासन करता है, और दूसरा दरबारी पंडित जो राजा को प्रसन्न करने के लिए ग़लत बात पर भी तर्क करके उसको सही सिद्ध करने की चेष्टा करता है।

(कुछ बोल न सकने की स्थिति में कालिदास वृद्धा के पैर पर गिर पड़े और पानी की याचना में गिड़गिड़ाने लगे)

वृद्धा ने कहा :- उठो वत्स ! (आवाज़ सुनकर कालिदास ने ऊपर देखा तो साक्षात माता सरस्वती वहां खड़ी थी, कालिदास पुनः नतमस्तक हो गए) माता ने कहा :- शिक्षा से ज्ञान आता है न कि अहंकार । तूने शिक्षा के बल पर प्राप्त मान और प्रतिष्ठा को ही अपनी उपलब्धि मान लिया और अहंकार कर बैठे इसलिए मुझे तुम्हारे चक्षु खोलने के लिए ये स्वांग करना पड़ा। कालिदास को अपनी गलती समझ में आ गई और भरपेट पानी पीकर वे आगे चल पड़े।

Saturday, January 20, 2018

दान पुण्य की महिमा

एक समय की बात है. धन-ऐवर्श्य से भरपूर सुख-सुविधाओं से सुसज्जित एक धनवान परिवार में चार भाई थे। घर का मुखिया उनका पिता अपने चारों पुत्रों के व्यवहार से अत्यधिक प्रसन्न था। सब लोग परस्पर प्रेमपूर्ण व्यवहार करते थे। पिता की सद्आज्ञाओं का पालन और मां की भावनाओं का हृदय से सम्मान करना उनकी खास आदतों में शुमार था। इस व्यापारी परिवार में बडे तीन भाई विवाहित थे, तीनों की धर्म पत्नियां भी अत्यंत सेवाभावी थीं, सब लोग एक साथ बैठकर भोजन करते थे, घर में किसी भी तरह से एकता का अभाव नहीं था।समय के अनुसार व्यापारी सेठ के चौथे पुत्र की शादी भी धूमधाम से सम्पन्न हुई। नई-नवेली दुल्हन एक खुशहाल परिवार में बहुत बन ठन कर आई, सबने उसका खूब स्वागत किया। बहू को आए अभी पांच ही दिन हुए थे कि उसने देखा-इस बडे घर के द्वार पर भिखारी आता है मन में आस लेकर, लेकिन जब कोई उसकी आवाज नहीं सुनता तो चला जाता है निराश होकर। छठे दिन बहू नीचे वाले कमरे में बैठी हुई थी। सुबह का समय था, सेठ जी नियमित रूप से दो घंटे तक पूजा किया करते थे, प्रतिदिन की तरह वे अपने पूजा-पाठ के कार्यक्रम में संलग्न थे।
तभी उनके द्वार पर एक भिखारी आया। उसने अलख जगाई, भगवान के नाम पर कुछ दे दो मेरे दाता। आज इस नई-नवेली दुल्हन से रहा नहीं गया, उसने प्यार से, मगर ऊंची आवाज से कहा-बाबा चले जाओ यहां से, यहां तो सब बासी खाना खाते हैं, ताजा भोजन यहां नहीं बनता, देने के लिए यहां कुछ भी नहीं है। थोड़े-थोड़े समय के अंतराल पर दो-तीन याचक और आए, उन्होंने भी अलख जगाई, बहू ने उन्हें भी यही जबाव दिया। सेठ जी पूजा घर में सब कुछ सुन रहे थे। उन्हें बडा दु:ख हुआ कि बहू को क्या यहां ताजा भोजन नहीं मिलता अगर ऐसा है तो बड़ा अनर्थ हुआ है। थोड़ी देर बाद सेठ जी से कोई मिलने आया, उसने आवाज दी कि सेठ जी घर में हैं क्या? और अन्य तो कोई बोला नहीं, छोटी बहू ने झट से कहा- सेठ जी दुकान गए हैं। फिर कोई मिलने वाला आया तो बहू ने कहा- सेठ जी बैंक गए हैं, फिर कोई व्यक्ति किसी काम से आया तो बहू ने कहा- सेठ जी कारखाने गए हैं। सेठ जी यह सब सुनकर बहुत आश्चर्यचकित हुए कि बहू ने ऐसा व्यवहार क्यों किया? मैं तो यहीं पर हूं और यह सबको झूठ बोल रही है।
प्रतिदिन की तरह सायं को सभी घर के सदस्य खाने की टेबल पर इकट्ठे हुए। चारों पुत्र, चारों पुत्र वधुएं, सेठ-सेठानी। भोजन रुचिकर बनाने की परम्परा सेठजी के घर में लम्बे समय से चली आ रही थी, नौकर-चाकर भोजन बनाते थे और प्रेमपूर्वक सब मिल-जुलकर ही खाते थे। किन्तु भोजन की शुरूआत सेठ जी से ही होती थी। सारे व्यंजन मेज पर सजाए गए, गर्म-गर्म पूड़ियां आती रहीं, लेकिन आज सेठजी ने भोजन प्रारंभ नहीं किया। सब लोग अपने-अपने हिसाब से सोच रहे हैं, डर रहे हैं कि आज पता नहीं क्या बात है, पिता जी भोजन क्यों नहीं ग्रहण कर रहे हैं? काफी देर बाद सेठ जी ने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए छोटी बहू से पूछा, बेटी तुम्हें घर में कोई परेशानी है, कोई तकलीफ है, या यहां तुम्हारे मान-सम्मान में कोई कमी है? छोटी बहू भी सबकी तरह सहमी हुई थी, उसने अपनी नजर नीची रखते हुए कहा पिताजी? मैं यहां खुश हूं। सभी लोग मेरा बहुत ख्याल रखते हैं। मुझे प्यार करते हैं, सभी मेरे लिए देवतुल्य हैं, यह तो मेरा सौभाग्य है कि मैं आपके घर की बहू बन पाई।
सेठजी ने कहा- तुम हमारी बेटी के समान हो, अगर तुम्हें कोई तकलीफ हो तो नि:संकोच होकर कहो, बहू ने अपने ससुर के चरण छूकर कहा कि मुझे यहां कोई परेशानी नहीं है, कृपया भोजन ग्रहण कीजिए, सास माता ने बहू के सुर में सुर मिलाते हुए कहा- आप भोजन करो- यह सब ठण्डा हुआ जा रहा है।
सेठ जी बहू के जवाब से संतुष्ट नहीं थे, उनके कानों में तो प्रात:काल वाली आवाजें गूंज रही थीं, कि सेठ जी बैंक गए हैं, कारखाने गए हैं, दुकान पर गए हैं, हमारे यहां खाना बासी होता है आदि। सेठ जी ने पुन: प्यार से कहा- बेटी। जब तुम्हें यहां कोई तकलीफ नहीं है तो तुमने सुबह भिखारी को यह क्यों कहा कि यहां तो सब बासी खाना खाते हैं, ताजा तो बनता ही नहीं और यह क्यों कहा कि सेठ जी बैंक गए हैं, दुकान गए हैं, कारखाने गए हैं।
छोटी बहु सुप्रिया विनम्रता से बोली पिताजी। मैं क्षमा चाहती हूं, किन्तु मैं पिछले पांच दिनों से सुनती-देखती आ रही हूं कि हमारे द्वार से भिखारी रोज खाली हाथ लौटकर जाते हैं, दान-पुण्य करते हुए कोई नजर नहीं आ रहा है, हम किसी जरूरतमंद को भोजन कराए बिना ही भोजन करते हैं। पिताजी यह तो हमारे पूर्व जन्मों का पुण्य है कि हम खुशहाल हैं, किन्तु नए पुण्य तो हम अर्जित कर ही नहीं रहे, हम पूर्व में किए बासी पुण्य कर्मों के सुख भोग रहे हैं, नए करेंगे तो उनका फल ताजा होगा। सेठ जी को ये जागृति के वचन बहुत सुहाए, उन्होंने तुरन्त कहा- बेटी तुम ठीक कहती हो, कल से क्या। आज से ही हम दान-पुण्य करके भोजन ग्रहण करेंगे।
सेठ जी ने कहा- पर बेटी तुम यह तो बताओ कि तुमने ऐसा क्यों कहा कि सेठ जी बैंक गए हैं, दुकान पर गए हैं, कारखाने में गए हैं। बहू ने कहा- पिताजी। आप पूजाघर में थे, लेकिन सच बताना जब मैंने यह कहा कि आप बैंक गए हैं तब आपका मन पूजा में था या बैंक में, जब मैंने दुकान पर गए हैं कहा तो आपका मन उस समय कहां था? जब मैंने कारखाने की बात कही तब क्या आप अपने मजदूरों के वेतन की बात नहीं सोच रहे थे? छोटी बहू के द्वारा ऐसा सुनकर सेठजी की आंखों में प्रेम के आंसू आ गए, और बहू का भी गला रुंध सा गया। सेठ जी ने बहू से कहा- बेटी तुम्हारी सारी बातें सही हैं, तुम केवल बहू बनकर हमारे घर नहीं आई बल्कि सौभाग्य लक्ष्मी बनकर हमारे घर में पधारी हो। तुमने हमारी आंखें खोलीं, हमें जगाया हम तेरे बहुत शुक्रगुजार हैं। प्रतिदिन दान-पुण्य जरूर करेंगे, भगवान की भक्ति मन से करेंगे।

Friday, January 12, 2018

मौजूदगी

एक गुरु के पास दो युवक आये और उन्होंने दीक्षित होने की प्रार्थना की | गुरु ने कहा कि इससे पहले कि तुम्हें दीक्षित करूँ, एक परीक्षा | यह लो -- एक कबूतर तो ले, एक कबूतर तू ले -- और दोनों जाओ और ऐसी जगह मार कर कबूतर को जाओ, जहाँ कोई देखने वाला न हो |

एक युवक तो भागा, जल्दी बाहर गया, बगल की गली में पहुंचा, वहां कोई भी नहीं था | उसने जल्दी से गर्दन मरोड़ दी, लौट कर आ गया | उसने कहा, लो गुरुदेव | दीक्षा दो | गुरु ने कहा कि रुक |

दूसरा युवक कोई तीन महीने तक न लौटा | और पहला युवक बड़ा परेशान होने लगा कि हद हो गयी | अभी तक इसको ऐसी जगह न मिली जहां यह मार लेता, जहां कोई देखने वाला न हो | और बगल की गली काफी है |मैं उसमें मार कर आया हूँ | गुरु कहता, तो चुप रह ! और जब तक दूसरा न लौट आएगा तब तक मैं तुझे कुछ उत्तर न दूंगा | उसको आने दे |अब तो दूसरा आता ही नहीं | पहला घबड़ाने लगा | उसने कहा मुझे तो दीक्षा दे दें |

तीन महीने बाद दूसरा युवक लौटा कबूतर को साथ लेकर | हाल बेहाल था | शरीर सूख गया था लेकिन आँखों में एक अपूर्व ज्योति थी | गुरु के चरणों में सिर रख कर उसने कबूतर लौटा दिया कि यह नहीं हो सकता | आपने भी कहाँ की उलझन दे दी ! तीन महीने परेशान हो गया | सब जगह खोजा | ऐसी कोई जगह न मिली जहाँ कोई देखने वाला न हो |

फिर मैं अँधेरे तलघरे में चला गया | वहां कोई भी न था | ताला लगा दिया | रौशनी की एक किरण न पहुँचती थी, देखने का कोई सवाल ही नहीं था | लेकिन यह कबूतर रहा था | इसकी टुकुर टुकुर आँखें, इसके ह्रदय की धड़कन ! मैंने कहा, यह तो मौजूद है | तो फिर मैंने इसे ऐसा बंद किया डब्बों में कि इसकी धड़कन न सुनाई पड़े, न इसकी आँख दिखाई पड़ें | फिर इसे लेकर मैं गया, लेकिन तब भी हार हो गयी क्योंकि मैं मौजूद था | आपने कहा था, कोई भी मौजूद न हो | यह भी क्या शर्त लगा दी ? मेरी मौजूदगी तो रहेगी ही, अब मैं इसको कहीं भी ले जाऊं | मैं हार गया | अब मैं ले आया | आप चाहे दीक्षा, चाहे न दें ! लेकिन इस परीक्षा में ही मुझे बहुत कुछ मिल गया है | एक बात मेरी समझ में आ गयी कि एकमात्र ऐसी मौजूदगी है जो कभी भी नहीं खोयेगी, वह मेरी है | गुरु ने कहा, तू दीक्षित कर लिया गया |

ईश्वर की डायरी



एक समय की बात है. एक संत हुआ करते थे । उनकी इबादत या भक्ति इस कदर थीं कि वो अपनी धुन में इतने मस्त हो जाते थे की उनको कुछ होश नहीं रहता था । उनकी अदा और चाल इतनी मस्तानी हो जाती थीं । वो जहाँ जाते , देखने वालों की भीड़ लग जाती थी। और उनके दर्शन के लिए लोग जगह -जगह पहुँच जाते थे । उनके चेहरे पर नूर साफ झलकता था ।
वो संत रोज सुबह चार बजे उठकर ईश्वर का नाम लेते हुए घूमने निकल जाते थे। एक दिन वो रोज की तरह अपने मस्ति में मस्त होकर झूमते हुए जा रहे थे।
रास्ते में उनकी नज़र एक फ़रिश्ते पर पड़ी और उस फ़रिश्ते के हाथ में एक डायरी थीं । संत ने फ़रिश्ते को रोककर पूछा आप यहाँ क्या कर रहे हैं ! और ये डायरी में क्या है ? फ़रिश्ते ने जवाब दिया कि इसमें उन लोगों के नाम है जो खुदा को याद करते है ।
यह सुनकर संत की इच्छा हुई की उसमें उनका नाम है कि नहीं, उन्होंने पुछ ही लिया की, क्या मेरा नाम है इस डायरी में ? फ़रिश्ते ने कहा आप ही देख लो और डायरी संत को दे दी । संत ने डायरी खोलकर देखी तो उनका नाम कही नहीं था । इस पर संत थोड़ा मुस्कराये और फिर वह अपनी मस्तानी अदा में रब को याद करते हुए चले गये ।
दूसरे दिन फिर वही फ़रिश्ते वापस दिखाई दिये पर इस बार संत ने ध्यान नहीं दिया और अपनी मस्तानी चाल में चल दिये।इतने में फ़रिश्ते ने कहा आज नहीं देखोगे डायरी । तो संत मुस्कुरा दिए और कहा, दिखा दो और जैसे ही डायरी खोलकर देखा तो, सबसे ऊपर उन्ही संत का नाम था
इस पर संत हँस कर बोले क्या खुदा के यहाँ पर भी दो-दो डायरी हैं क्या ? कल तो था नहीं और आज सबसे ऊपर है ।
इस पर फ़रिश्ते ने कहा की आप ने जो कल डायरी देखी थी, वो उनकी थी जो लोग ईश्वर से प्यार करते हैं । आज ये डायरी में उन लोगों के नाम है, जिनसे ईश्वर खुद प्यार करता है ।
बस इतना सुनना था कि वो संत दहाड़ मारकर रोने लगे, और कितने घंटों तक वही सर झुकाये पड़े रहे, और रोते हुए ये कहते रहे ए ईश्वर यदि में कल तुझ पर जरा सा भी ऐतराज कर लेता तो मेरा नाम कही नहीं होता । पर मेरे जरा से सबर पर तु मुझ अभागे को इतना बड़ा ईनाम देगा ।