Thursday, December 14, 2017

स्वीकारता

 एक समय की बात है..एक दिन गुरु नानकदेव अकेले बैठे हुए थे। एक डाकू उनके पास आया और उनके चरणों में गिरकर कहने लगा- 'मैं डाकू हूँ, अपने जीवन से परेशान हूँ, अपने को सुधारना चाहता हूँ। इन पापों से, जो मैं रोज करता हूँ, मुक्ति चाहता हूँ। मुझे कोई उपाय बताइये। मेरा मार्गदर्शन कीजिये।' नानकदेव पहले तो उस डाकू के हाव-भाव देखते रहे, फिर बोले- 'तुम आज से डाका डालना और झूठ बोलना छोड दो, सब ठीक हो जायेगा।' डाकू उन्हें प्रणाम करके लौट गया। लेकिन कुछ दिन के बाद फिर आया और कहने लगा-'मैंने झूठ न बोलने और डाका न डालने की भरसक कोशिश की मगर इन आदतों को छोड़ नहीं पाता। लेकिन मैं सुधरना अवश्य चाहता हूँ। आप मुझे कोई उपाय बताइये।' और वह उनके चरणों में गिर पड़ा। गुरुजी पुन: सोच में पड़ गये फिर उनके होठों पर मुस्कान आयी। वे डाकू से बोले- 'अच्छा, जो तुम्हारे मन में आये करो लेकिन दिनभर झूठ बोलने, डाका डालने के बाद प्रतिदिन लोगों के सामने अपने इन सब कामों का बखान कर दो।' डाकू को यह उपाय बहुत आसान मालूम हुआ। वह प्रणाम करके चला गया। इस बार बहुत दिन बीत गये डाकू लौटकर नहीं आया। फिर एक दिन जब गुरुजी ध्यानमग्न थे, अचानक वह उनके सामने आ खड़ा हुआ। गुरुजी ने जब उसे पास खड़े देखा, तो पूछा-'बहुत दिनों के बाद लौटे हो।' डाकू बोला- 'मैं आपके बताये उस उपाय को बहुत आसान समझता था, लेकिन वह तो बहुत कठिन निकला। लोगों के सामने अपनी बुराइयां कहने में तो लाज आती है, सो मैंने बुरे काम करना ही छोड़ दिया है।'   ज़िन्दगी में बुरे अथवा गलत काम करना जितना आसान होता है उससे कही ज्यादा मुश्किल उन्हें स्वीकार करते हुए जीने में होता है।

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