Wednesday, December 6, 2017

ईश्वर का न्याय

एक समय की बात है. एक रोज एक महात्मा अपने शिष्य के साथ भ्रमण पर निकले।   चलते हुए जब वो तालाब से होकर गुजर रहे थे, तो उन्होंने देखा कि एक धीवर नदी में जाल डाले हुए है। शिष्य यह सब देख खड़ा हो गया और धीवर को ‘अहिंसा परमोधर्म’ का उपदेश देने लगा। लेकिन धीवर कहाँ समझने वाला था, पहले उसने टालमटोल करनी चाही और बात जब बहुत बढ़ गयी तो शिष्य और धीवर के बीच झगड़ा शुरू हो गया। यह झगड़ा देख गुरूजी जो उनसे बहुत आगे बढ़ गए थे, लौटे और शिष्य को अपने साथ चलने को कहा एवं शिष्य को पकड़कर ले चले।
गुरूजी ने अपने शिष्य से कहा- “बेटा हम जैसे साधुओं का काम सिर्फ समझाना है, लेकिन ईश्वर ने हमें दंड देने के लिए धरती पर नहीं भेजा है!”  शिष्य ने पुछा- “महाराज! को तो बहुत से दण्डों के बारे में पता ही नही है और हमारे राज्य के राजा तो बहुतों को दण्ड ही नहीं देते हैं। तो आखिर इसको दण्ड कौन देगा?”
शिष्य की इस बात का जवाब देते हुए गुरूजी ने कहा- “बेटा! तुम निश्चिंत रहो इसे भी दण्ड देने वाली एक अलौकिक शक्ति इस दुनिया में मौजूद है जिसकी पहुँच सभी जगह है… ईश्वर की दृष्टि सब तरफ है और वो सब जगह पहुँच जाते हैं। इसलिए अभी तुम चलो, इस झगड़े में पड़ना गलत होगा, इसलिए इस झगड़े से दूर रहो।”
शिष्य गुरुजी की बात सुनकर संतुष्ट हो गया और उनके साथ चल दिया। इस बात के दो वर्ष बाद एक दिन गुरूजी और शिष्य दोनों उसी तालाब से होकर गुजरे, शिष्य अब दो साल पहले की वह धीवर वाली घटना भूल चुका था। उन्होंने उसी तालाब के पास देखा कि एक घायल साँप बहुत कष्ट में था उसे हजारों चीटियाँ नोच-नोच कर खा रही थीं। शिष्य ने यह दृश्य देखा और उससे रहा नहीं गया, दया से उसका ह्रदय पिघल गया था। वह सर्प को चींटियों से बचाने के लिए जाने ही वाला था कि गुरूजी ने उसके हाथ पकड़ लिए और उसे जाने से मना करते हुए कहा-“ बेटा! इसे अपने कर्मों का फल भोगने दो। यदि अभी तुमने इसे बचाया तो इस बेचारे को फिर से दुसरे जन्म में यह दुःख भोगने होंगे क्योंकि कर्म का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है।
शिष्य ने गुरूजी से पुछा- “गुरूजी इसने ऐसा कौन-सा कर्म किया है जो इस दुर्दशा में यह फँसा है?”
गुरू महाराज बोले- “यह वही धीवर है जिसे तुम पिछले वर्ष इसी स्थान पर मछली न मारने का उपदेश दे रहे थे और वह तुम्हारे साथ लड़ने के लिए आग-बबूला हुआ जा रहा था। वे मछलियाँ ही चींटीयाँ है जो इसे नोच-नोचकर खा रही है।”
यह सुनते ही बड़े आश्चर्य से शिष्य ने कहा- गुरूजी, यह तो बड़ा ही विचित्र न्याय है।”
शिष्य बोला- “गुरुदेव तो क्या अगर कोई दुर्दशा में पडा हो तो उसे उसका कर्म मान कर उसकी मदद नहीं करनी चाहिए?”  गुरुजी बोले- “करनी चाहिए, अवश्य करनी चाहिए। यहाँ पर तो मैने तुम्हें इसलिए रोक दिया क्योंकि मुझे पता था कि वह किस कर्म को भुगत रहा है। साथ ही मुझे तुमको ईश्वर के न्याय का नमूना भी दिखाना था। लेकिन अगर मै यह सब नहीं जानता तो उसकी मदद न करना मेरा पाप होता, इसलिए तब मै भी अवश्य उसकी मदद करता।“
शिष्य गुरुजी की बात स्पष्ट रूप से समझ चुका था।


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