कितना बड़ा था प्रशंसा का व्यंजन और परोसने वाले थे साक्षात भगवान् ! लेकिन भरतजी ने भगवान को उसका भोग लगा दिया। भगवान् ने पूछा, "भरत, यह बताओ मैं जो कह रहा हूँ, वह ठीक है या नहीं ? मेरी दृष्टि पर तुम्हें विश्वास है या नहीं ?" भरत जी बोले, "प्रभु , मैं आपकी दृष्टि पर विश्वास कैसे न करूँ ? जब आप कह रहे हैं, तब अवश्य होगा।" "अब तो अपनी निन्दा नहीं करोगे ? अपने को पापी नहीं कहोगे ?" भरत जी ने कहा," नहीं महाराज, मैं जानता हूँ, आपके सामने एक समस्या है।"
" वह क्या ?"
" यह कि दोष तो आप देख ही नहीं पाते। इसलिए मेरे दोष आपको दिखाई नहीं देते हैं तो वह ठीक ही है।"
भगवान् ने पूछा," अच्छा, दोष देखना यदि मुझे नहीं आता तो गुण देखना तो आता है ?"
भरत जी बोले, "महाराज, गुण देखना आपको आता तो है, पर मैं आपसे पूछता हूँ यदि तोता बहुत बढ़िया श्लोक पढ़ने लगे और बन्दर बहुत बढ़िया नाचने लगे तो यह बन्दर या तोते की विशेषता है अथवा पढ़ाने और नचाने वाले की ?"
भगवान ने कहा," पढ़ाने और नचाने वाले की।
" महाराज, बिल्कुल ठीक कहा आपने। मैं तो तोते और बन्दर की तरह हूँ। यदि मुझमें कोई विशेषता दिखाई देती है तो पढ़ाने और नचाने वाले तो आप ही हैं। इसलिए यह प्रशंसा आपको ही अर्पित है।"
भगवान ने भरत से कहा, "भरत, तो प्रशंसा तुमने लौटा दी ?"
भरत जी बोले," प्रभु, प्रशंसा का कुपथ्य सबमें अजीर्ण पैदा कर देता है, सबको डमरुआ रोग से ग्रस्त कर देता है। लेकिन आप इस प्रशंसा को पचाने में बड़े निपुण हैं। अनादिकाल से सारे भक्त आपकी स्तुति कर रहे हैं, पर आपको तो कभी अहंकार हुआ नहीं, ऐसी स्थिति में यह प्रशंसा आपको ही निवेदित है।
" वह क्या ?"
" यह कि दोष तो आप देख ही नहीं पाते। इसलिए मेरे दोष आपको दिखाई नहीं देते हैं तो वह ठीक ही है।"
भगवान् ने पूछा," अच्छा, दोष देखना यदि मुझे नहीं आता तो गुण देखना तो आता है ?"
भरत जी बोले, "महाराज, गुण देखना आपको आता तो है, पर मैं आपसे पूछता हूँ यदि तोता बहुत बढ़िया श्लोक पढ़ने लगे और बन्दर बहुत बढ़िया नाचने लगे तो यह बन्दर या तोते की विशेषता है अथवा पढ़ाने और नचाने वाले की ?"
भगवान ने कहा," पढ़ाने और नचाने वाले की।
" महाराज, बिल्कुल ठीक कहा आपने। मैं तो तोते और बन्दर की तरह हूँ। यदि मुझमें कोई विशेषता दिखाई देती है तो पढ़ाने और नचाने वाले तो आप ही हैं। इसलिए यह प्रशंसा आपको ही अर्पित है।"
भगवान ने भरत से कहा, "भरत, तो प्रशंसा तुमने लौटा दी ?"
भरत जी बोले," प्रभु, प्रशंसा का कुपथ्य सबमें अजीर्ण पैदा कर देता है, सबको डमरुआ रोग से ग्रस्त कर देता है। लेकिन आप इस प्रशंसा को पचाने में बड़े निपुण हैं। अनादिकाल से सारे भक्त आपकी स्तुति कर रहे हैं, पर आपको तो कभी अहंकार हुआ नहीं, ऐसी स्थिति में यह प्रशंसा आपको ही निवेदित है।
No comments:
Post a Comment